Book Title: Mahabal Malayasundari Charitra
Author(s): Tilakvijay, Jayanandsuri
Publisher: Ek Sadgruhastha

View full book text
Previous | Next

Page 185
________________ श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र दुःख में वियोगी मिलन वेदनायें भोगते हैं । महाराज ! सती के शील का खंडन करना केसरी सिंह की केसरायें ग्रहण करने के समान है या दृष्टिविष सर्प के मस्तक पर रहे हुए मणि को ग्रहण करना और सती के शील पर हाथ डालना एक सरीखा है । इसलिए हे राजन् ! आपको यह विचार परित्याग करना चाहिए । आप ऐसे कृत्यों के द्वारा अपने निष्कलंक कुल को कलंकित न करें। इस तरह समझाने पर भी कंदर्प अपने दुष्ट अभिप्राय से जरा भी पीछे न हटा । उसने निश्चय कर लिया कि चाहे कुछ भी हो मैं इसे अपनी स्त्री अवश्य बनाऊंगा । मलयासुन्दरी ने यह निश्चय कर लिया था अगर किसी भी उपाय से मैं अपने शील की रक्षा होती न देगी तो उस दुष्कृत्य से पहले मैं अपने प्राणों की आहुती दे दूंगी । इधर वासना का दास बना हुआ राजा कंदर्प उसे वश करने के लिए अनेक प्रकार के उपाय सोचता है, परन्तु उसे किसी भी उपाय में सफलता प्राप्त नहीं होती । अब उसने मलयासुन्दरी को हमेशा छेड़कर हठिली बनाना उचित न समझा। अब वह यह सोचकर कि जो काम बल से नहीं होता वह प्रेम और कपट छलसे सिद्ध हो जाता है मलयासुन्दरी को देशान्तरों से भेट में आये हुए अच्छे - अच्छे पदार्थ भेजने लगा । एक दिन राजा अपने महल पर टहल रहा था उसी समय एक तोता कहीं से पका हुआ एक आम्रफल लिये जा रहा था; दैवयोग से वह उसके चोंच से निकल जाने के कारण राजा के सामने आ पड़ा । राजा उस सुन्दर फल को हाथ में उठाकर सोचने लगा - अहो ! फाल्गुन मास में यह आम्रफल कहाँ से आया ? विचार करते हुए उसे मालूम हुआ शहर के नजदीक में जो छिन्नटंक नामक पहाड़ है उसी के एक विषम प्रदेश में ऐसा वृक्ष है जिस पर सदा काल फल लगते रहते हैं । उसी वृक्ष का फल लेकर कोई पक्षी आकाश से जा रहा होगा; उससे छूटकर यह फल मेरे सामने गिरा है । यदि मैं इस फल को उस स्त्री को दूंगा तो शायद उसका मन मेरी ओर झुके । यह सोच उसने एक नौकर के द्वारा वह आम्रफल मलयासुन्दरी के पास भेजा और सेवकों को यह भी आज्ञा दी कि आज उस स्त्री को जनाने महल में ले जाओ । बलात्कार से भी मैं आज अपने मनोरथ पूर्ण करुंगा । सेवक ने यह पका हुआ आम्रफल 168

Loading...

Page Navigation
1 ... 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264