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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
दुःख में वियोगी मिलन अव्यक्त स्थिति में प्यारे महाबल ! दासी को भूल न जाना, यह शब्द बोलता था। यह सुन महाबल विस्मित हुआ । उसने अपने हाथ से उसके शरीर की शुश्रुषा करनी शुरु की । कुछ देर के बाद उसे कुछ चैतन्य आया । अतः महाबल बोलासाहसिक युवक ! तुम कौन हो ? और किस दुःख से तुम इस कुएँ में पड़े हो? मलयासुन्दरी ने अपने स्वामी महाबल का शब्द सुनकर कुछ उसीके विषय में अनुमान किया । इसलिए उसने कहा - मुझे भी आपसे यही सवाल पूछना है। परन्तु आप इससे पहले यह काम करें कि अपने थूक से मेरे मस्तक पर लगे हुए तिलक को मिटा दें । वैसा करने से मलयासुन्दरी का वास्तविक रूप हो गया । वह अपने प्राण प्यारे को सन्मुख देख उसके गले में हाथ डालकर एकदम भेट पड़ी और उसके परोक्ष में सहे हुए असह्य दुःखों को यादकर वह फूट फूटकर रोने लगी । इस समय कुएँ की भींत के एकगड्डे में रहे हुए साँप ने अपनी फणा बाहर निकाली । उसकी फणापर दैदीप्यमान् मणि होने से कुएँ के अन्दर दीपक के जैसे प्रकाश फैल गया । वियोगी दम्पती ने एक दूसरे के दर्शन किये । मणि द्वारा प्रकाशकर उस सर्प ने भविष्य में होनेवाले उनके उदय की सूचना दी । प्रिया से मिलने की उत्कंठा से ग्राम, नगर, और जंगलो में भटकनेवाला महाबल एक वर्ष के बाद ऐसे विषमस्थान में मणि के प्रकाश में मलयासुन्दरी के साक्षात् दर्शनकर हर्ष से गद्गद् हो उठा । उसने अत्यंत प्रेम से उसे अपनी छाती से लगा लिया । इस समय वे दोनों अपने ऊपर पड़े हुए तमाम दुःखो को भूलकर जिस
अनिर्वचनीय सुख का अनुभव कर रहे थे। भला उस सुख को लिखने की इस निर्जीव लेखनी में शक्ति कहाँ ? दोनों की आँखों से आनन्द के अश्रु बहने लगे। कुछ देर तक आनन्द के वेग से हृदय भर आने के कारण वे एक - दूसरे से कुछ भी न बोल सके । जब अश्रुओं के द्वारा हृदय का वेग दूर हो चुका तब महाबल बोला : प्रिये ! तुम आज तक का तुम्हारा अनुभव किया हुआ मुझे सर्व वृत्तान्त सुनाओ।
मलयासुन्दरी ने पति की आज्ञा से कंपित - शरीर, दुःखित हृदय, और अश्रुपूर्ण नेत्रों से अनुभव किया हुआ अपना दुःख गर्भित वृत्तान्त कह सुनाया।
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