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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
दुःखों का अन्त विशेष चोट न लगी । जिसने अपनी मणि से कल रात को हमारे मिलन समय प्रकाश किया था वह सर्प भी उस कुएँ में ही था । वह फिर से निकला तब मैंने उसके मणिप्रकाश में कुएँ के चारों तरफ देखा । जिस जगह वह सर्प बैठा था ; उसी जगह मैंने एक द्वार देखा । परन्तु उस पर एक शिला लगायी हुई थी। दरवाजा होने की शंका से मैंने उस शिला को दूसरी तरफ खींच लिया । द्वार खुल गया और वह सर्प धीरे - धीरे उसके अन्दर चलने लगा । मैंने भी साहसकर उस द्वार में प्रवेश किया। वह सर्प रात में मशाल धारी के समान मेरे आगे - आगे चल पड़ा । मणि के प्रकाश से मुझे उस गुफा में बड़ी सहाय मिली । मैंने यह निश्चय किया कि यह सुरंग किसी चोर की बनायी हुई होनी चाहिएँ । और इस कुएँ से बाहर निकलने का इसका द्वार भी अवश्य होना चाहिए । इन्हीं विचारों में कुछ दूर जब आगे गया; तब अकस्मात् वह साँप न जाने किस तरफ गुम हो जाने से सुरंग में अन्धकार छा गया। परन्तु मैं भी फिर साहस धारण किये जन्मांध के समान उस घोर अन्धकार में आगे ही बढ़ता गया। इसी तरह चलते हुए मैं एक शिला के साथ टकरा गया । उस शिला पर जोर के साथ लात मारने से सुरंग का दरवाजा खुल गया । जिस तरह गर्भाशय में से प्राणी बाहर निकलता है उसी प्रकार मैं उस गुफा से बाहर निकला । फिर मैंने उस साँप की घसीट देखी । मैं उसके अनुसार कुछ दूर तक गया तो वह सर्प मुझे एक शिला पर कुण्डली लगाये बैठा मालूम हुआ । नागदमनी विद्याद्वारा मैंने उस सर्पको वश किया और अचिंत्य प्रभाववाला उसके मस्तिष्क से वह मणिग्रहण किया। पहाड़ से उतरनेवाली नदी के नजदीक श्मशान भूमि में सुरंगद्वार होने से मुझे विश्वास होता है कि वह अवश्य ही किसी चोर का बनाया हुआ गुप्त स्थान है । परन्तु यह भी मालूम होता है कि उस गुफा में बहुत दिनों से किसी मनुष्य का आना - जाना न होने के कारण वह चोर शायद मर गया होगा । उस सुरंग द्वार को मैं फिर उसी पत्थर से ढक कर यहाँ आया हूँ।
यह राजा मुझ पर अनर्थ और अन्याय करेगा यह जानते हुए भी तेरे विरह को सहन करने में असमर्थ होकर शहर में आकर मैंने पटह बजता सुना । अतः
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