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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
पूर्वभव वृत्तान्त
(८) विना प्रयोजन पापकारी आरम्भ से निवृत्त होना इसे व्यवहार से आठवाँ अनर्थदण्ड विरमण व्रत कहते हैं । मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और मन, वचन, शरीर के योग इन चारों के उत्तर भेद सत्तावन होते हैं । आत्मा को मलीनकर अपने स्वरूप से वंचित करनेवाले कर्म का आगमन इन पूर्वोक्त हेतुओं से ही होता है और कर्मों के द्वारा ही आत्मा विभाव दशा को प्राप्त होती है । अतः पूर्वोक्त कर्मबन्धन के हेतुओं को त्यागना इसे निश्चय नय से अनर्थदण्ड विरमण नामक आठवाँ व्रत कहा है ।
(९) आरम्भ कार्य को त्यागकर जो सामायिक किया जाता है उसे व्यवहार से नवम व्रत कहते हैं । परन्तु ज्ञानादि गुणों की मुख्य सत्ता धर्म के द्वारा सर्वजीवों को समान समझकर उन पर समता परिणाम रखने को निश्चय नय से नवम सामायिक व्रत कहते हैं ।
(१०) नियमित स्थान में स्थिति करना यह व्यवहार से दशवाँ व्रत कहलाता है । परन्तु ज्ञान के द्वारा छह द्रव्यों का स्वरूप समझकर, पाँच द्रव्यों में त्याग बुद्धि रख ज्ञान से आत्मा का ध्यान करना इसे निश्चय से दशवाँ देशावकाशिक व्रत कहते हैं ।
(११) रातदिन के आरंभ समारंभ या पापकारी व्यापार का परित्याग करके ज्ञान, ध्यान में प्रवृत्त होना व्यवहार से ग्यारहवाँ व्रत कहलाता है । परन्तु ज्ञानध्यानादि के द्वारा आत्मीय गुणों का पोषण करना इसे निश्चय से ग्यारहवाँ पौषध व्रत कहते हैं ।
(१२) पौषध पारकर या पूर्वोक्त नियमों को धारण करने वाले गृहस्थ के लिए सदैव साधु मुनिराज को या किसी विशिष्ट गुणवान् श्रावक को अतिथिसंविभाग करके भोजन करना, इसे व्यवहार से अतिथि संविभाग व्रत कहते हैं । परन्तु अपनी आत्मा को तथा अन्य को ज्ञानदान करना, पठन, पाठन, श्रवण, श्रावण, वगैरह को निश्चय से बारहवाँ अतिथि संविभाग नामक व्रत कहते हैं ।
पूर्वोक्त निश्चय और व्यवहार भेदों सहित ये बारह प्रकार के नियम गृहस्थ
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