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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
पूर्वभव वृत्तान्त
(४) गृहस्थ धर्म में स्वदारा संतोष और परस्त्री का त्याग, तथा साधु मुनिराज के लिए सर्वस्त्री मात्र का परित्याग करना यह व्यवहार से चतुर्थ व्रत कहलाता है । परन्तु विषय की इच्छा का, ममत्व और तृष्णा का परित्याग रूप निश्चय से चतुर्थ व्रत होता है ।
(५) गृहस्थ धर्म में नव प्रकार के परिग्रह का परिमाण करना और संन्यस्त मार्ग में सर्व प्रकार के परिग्रह का त्याग करना, यह व्यवहार से पांचवाँ व्रत कहलाता है । भाव कर्म जो राग द्वेष, अज्ञान तथा आठ प्रकार के द्रव्यकर्म और देह की मूर्च्छा एवं पाँचों इन्द्रियों के विषयों के परित्याग को ज्ञानवान् पुरुषों ने निश्चय नय से पाँचवां व्रत कथन किया है ।
(६) दिशाओं में आने-जाने का परिमाण करना यह व्यवहार से छट्टा व्रत कहलाता है। और नरकादि चतुर्गति रूप कर्म के परिणाम को जानकर उस ओर उदासीन भाव रखना तथा सिद्ध अवस्था की तरफ उपादेय भाव रखना इसे निश्चय नय से छट्ठा व्रत कहते हैं ।
(७) भोगोपभोग व्रत में सर्व भोग्य वस्तुओं का परिमाण करना यह व्यवहार से सातवाँ व्रत कहलाता है । व्यवहार नय से कर्म का कर्त्ता तथा भोक्ता आत्मा ही है । और निश्चय नय से कर्म का कर्तापन कर्म को ही कहा है, क्योंकि मन, वचन और शरीर का योग ही कर्म का आकर्षण करता है । एवं भोक्तापन भी योग में ही रहा हुआ है । अज्ञानता के कारण आत्मा का उपयोग मिथ्यात्वादि कर्म ग्रहण करने के साधन में मिल जाता है । परन्तु परमार्थ वृत्ति से आत्मा कर्म पुद्गलों से भिन्न ही है । आत्मा ज्ञानादि गुणों का आविष्कर्ता भोक्ता है। संसार में जितने पौद्गलिक पदार्थ हैं वे जगतवासी अनेक जीवों के भोगे हुए हैं । अत एव विश्वभर के तमाम पदार्थ उच्छिष्ठ भोजन के समान होने के कारण उन पुद्गुलों को भोगोपभोग रूप से ग्रहण करने का आत्मीय धर्म नहीं है । इस प्रकार के चिंतन को निश्चय नय से सातवाँ व्रत कहते हैं ।
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