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'श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
पूर्वभव वृत्तान्त है । गृहस्थ धर्म के योग्य ज्ञानी पुरुषों ने मुख्यतया व्यवहार और निश्चय नय से बारह नियम बतलाये हैं।
(१) दूसरे प्राणी को अपने समान समझ कर उसकी हिंसा न करे । उसे किसी भी प्रकार की पीड़ा न पहुँचावे, इसे व्यवहार नय से प्रथम व्रत या नियम कहते हैं । और यह प्राणी अन्य प्राणियों की हिंसा द्वारा कर्म बन्धनकर के दुःख का भागी बनता है । इसलिए आत्मा के साथ लगे हुए कर्मो को दूर करना योग्य हैं। तथा यह आत्मा अनेक स्वाभाविक गुणवाली है । अतः हिंसादिकद्वारा कर्म ग्रहण करने का इसका स्वाभाविक धर्म नहीं है । इस प्रकार की ज्ञानबुद्धि से हिंसा के त्यागरूप आत्मगुण को ग्रहण करना या ग्रहण करने का निश्चय करना इसे निश्चय नय की अपेक्षा प्रथम व्रत कहते हैं।
(२) लोक निन्दित असत्य भाषण से निवृत्त होना यह व्यवहार से दूसरा व्रत कहलाता है । त्रिकाल ज्ञानी सर्वज्ञ देव के कथन किये हुए जीव अजीव के स्वरूप को अज्ञानतावश विपरीत कथन करना और पौद्गलिक परवस्तु को
आत्मीय कहना यह सरासर मृषावाद है । अतः इस प्रकार के मृषावाद से निवृत्त होना इसे निश्चय की अपेक्षा दूसरा व्रत कहा है। इस पूर्वोक्त व्रत के सिवा अन्य व्रतों की यदि विराधना भी हो जाय तो उसका चारित्र नष्ट हो जाता है । किन्तु ज्ञान और दर्शन ये दोनों कायम रहते है । पर उपरोक्त दूसरे व्रत की विराधना होने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये तीनों ही जो आत्मीय सुख की प्राप्ति कराते हैं नष्ट हो जाते हैं।
__ (३) किसीकी मालकियत की वस्तु मालिक के दिये बिना या उसकी आज्ञा विना ग्रहण न करना इसे व्यवहार नय से तीसरा व्रत कहते हैं। परन्त द्रव्य से पर वस्तु ग्रहण न करने के उपरान्त अन्तःकरण में पुण्य तत्त्व के बैतालिस भेद प्राप्त करने की इच्छा से धर्म कार्य करता हुआ और पाँचों इन्दियों के तेईस विषय तथा कर्म की आठ वर्गणायें, वगैरह अनात्मीय परवस्तु ग्रहण करने की इच्छा तक भी न करना इसे निश्चय नय की अपेक्षा तीसरा व्रत कहते
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