Book Title: Mahabal Malayasundari Charitra
Author(s): Tilakvijay, Jayanandsuri
Publisher: Ek Sadgruhastha

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Page 204
________________ श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र दुःखों का अन्त विषम कार्य करने का सामर्थ्य देख सभासदों के दिल में भी कुछ भीति पैदा हुई। इस समय तमाम राजसभा मौनावलंबी हो महाबल के अतुल सामर्थ्य का विचार कर रही थी। महाबल ने करंडिये का मुँह खोलकर उसमें से दो चार सुन्दर फल ले राजा से कहा - "आप इसमें के फल खाइए; मैं अपनी स्त्री के पास मिल आता हूँ, यों कह वह दुःखित हुई मलया सुन्दरी के पास आया । महाबल को पास आया देख मलयासुन्दरी पूर्व के समान ही हर्षित हो उससे भेट पड़ी । वह प्रसन्न मुख से बोली, प्राण प्यारे ! ऐसे कठिन कार्य में आपको किस तरह सफलता मिली? महाबल - "प्यारी ! तुम्हें याद होगा पहले जो योगी मेरी सहाय से सुवर्ण पुरुष सिद्ध करते हुए अग्निकुण्ड में गिरकर मर गया था, वह मरकर व्यंतर देव हो गया था । हमारे सद्भाग्य से वह इस आम्र वृक्ष पर ही रहता है । पर्वत शिखर की चोटी से झंपापात करते हुए उसने मुझे देखा और मेरे अंतिम शब्द सुनें । उस व्यंतर देव ने अपने ज्ञान से मुझे पहचान लिया । जिस वक्त झंपापात करके मैं नीचे आम्र वृक्ष के पास पहुँचा उस वक्त उसने मुझे नीचे न पड़ने देकर अधर ही धारण कर लिया । उसने प्रत्यक्ष होकर मुझसे कहा - परोपकारी राजकुमार ! आप जरा भी भीति न करना । पृथ्वीस्थानपुर के श्मशान में उत्तर साधक बनकर तुमने मुझ पर उपकार किया है; परन्तु मेरी किसी भूल के कारण सुवर्ण पुरुष सिद्ध न हुआ। मैं वहाँ से मरकर व्यंतर देव की योनि में पैदा हुआ हूँ। इस समय मुझे तुम्हारे उपकार का बदला देने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ है । इत्यादि उसने मुझे अपना सर्व वृत्तान्त सुनाया । मैं निर्भय होकर उसके पास ही रहा । सचमुच ही किसी पर किया हुआ उपकार निरर्थक नही जाता । प्रातःकाल होने पर व्यंतर देव ने कहा "राजकुमार ! आप मेरे अतिथी हैं । घर आये अतिथि का सन्मान करना ही चाहिए । इसलिए आप फरमायें मैं आपका कौन - सा इष्ट कार्य करके आपका स्वागत करूँ ? मैंने कहा कंदर्प राजा मुझे जो कार्य बतलावे मैं उस कार्य को करने में शक्तिमान बनूँ आप मुझे इस तरह की सहाय करें। व्यंतर – कंदर्प राजा तो आपको मारना चाहता है । इसलिए आपकी 187

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