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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
स्वजन - मिलाप इस राज्य का पूर्ण परिग्रह प्राप्त हुआ है। पूज्य पिताश्री के प्रमोदार्थ आपके समक्ष जो मैंने अपनी भुजाबल का विनोद किया है और उसमें आप पूज्यों का जो पराभव, अवज्ञा, या अविनय हुआ हो तो आप कृपाकटाक्ष द्वारा उसे क्षमा करें। पूज्य पिताश्री के दर्शनार्थ मैं स्वयं प्रबल उत्कंठित हो रहा था, इतने ही में पुण्योदय से अकस्मात् पूज्यों का पवित्र दर्शन प्राप्त हुआ है; इसलिए इस अद्वितीय हर्ष के स्थान में आपश्री शोकसागर में क्यो निमग्न हो रहे हैं ?
पत्र पढ़ते ही सारी सेना में हर्षध्वनि होने लगी । राजा शूरपाल और वीरधवल के जिस हृदय में कुछ ही देर पहले चिन्ता और शोकने स्थान प्राप्त किया हुआ था वही हृदय अब हर्ष और प्रमोद से पुलकित हो उठा । राजा शूरपाल आनन्द के आवेश में बोल उठा - अहो ! भाग्योदय! जिस प्रियपुत्र के दर्शनार्थ लगभग डेढ़ वर्ष से तरस रहा हूँ आज वह राज्य ऋद्धि संपन्न अपनी प्रिया सहित मिलेगा !! नरक के समान वियोग दुःख से आज हमारा उद्धार होगा। आज हमारे पिपासित नेत्र पुत्रदर्शन से तृप्त होंगे । इस प्रकार बोलता हुआ शूरपाल राजा महाराज वीरधवल के साथ उत्सुकतापूर्वक महाबल के सन्मुख चल पड़ा।
प्रेम एक ऐसी चिकनी भावना है कि उसके सामने मान, अपमान, बड़े - छोटे की गणना या तुलना नहीं रहती । अविवेक या अविनय तो उसके अखण्ड रस के प्रवाह में विलीन हो जाता है । प्रत्युत आन्तरिक आनंद को प्रकटकर प्रेम का पोषण करता है।
महाबल अपने पिता तथा स्वसुर को अपने सन्मुख आता देख रणरंग हाथी से नीचे कूदकर पिता के सामने दौड़ पडा । शीघ्र ही पास जाकर पिता के चरणों में मस्तक झुका दिया और आनन्द के आँसुओं से उसने दबी हुई चिरकालीन वियोग व्यथा को दूर किया । अब समरभूमि में न रहकर महाबल ने अपने पूज्य जनों को बड़े समारोह के साथ नगर में प्रवेश कराया।
राजमहल में पहुँचते ही मलयासुन्दरी ने अपने पिता तथा स्वसुर के चरणों में आकर नमस्कार किया। उन्हें देखते ही उसे अनुभूत दुःख याद आ गया ।
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