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दुःखों का अन्त
श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
दुःखों का अन्त
उठायी हर तरह तकलीफ पर परकी भलाई की। अमर कर नामरख दी शान अपनी वीरताई की ॥
प्रातःकाल का समय है । सूर्य देव ने उदयाचल पर चढ़कर अपनी सुनहरी किरणों से जगत भर को पीला बना दिया है । शहर के आलसी लोग तो अभी तक उठे भी नहीं हैं । ऐसे समय राजा की ओर से ढींडोरा पिट रहा है "परदेश से आयी हुई उस स्त्री को रात्रि में भयंकर सर्प ने डस लिया है, जो मनुष्य उसका विष उतार देगा उसे राजा अपना रणरंग हाथी, एक राजकन्या और देश का एक प्रान्त देगा । शहर भर में डिंडिम नाद बजता फिरा परन्तु एक भी मनुष्य उसे स्वीकार करनेवाला न मिला । जब वे राज पुरुष वापिस राजमहल को लौट रहे थे तब उन्हें एक विदेशी युवक मिला । उसके पूछने पर उन्होंने उसे सब समाचार कह सुनाया । वह परदेशी युवक बोला चलो मुझे राजा के पास ले चलो, मैं उस स्त्री को अच्छा करूँगा । राजपुरुष उसे साथ ले शीघ्र ही राजा के पास आये । उस युवक को देख राजा एक दम आश्चर्य चकित हो उसकी ओर आँखें फाड़कर देखता हुआ सोचने लगा "यह तो वही मनुष्य मालूम होता है जिसे हमने वापिस कुएँ में डाल दिया था ! इसे किस दुष्ट ने बाहर निकाला होगा ? नौकरों से बोला - यह कौन मनुष्य है नौकर बोले - महाराज ! सारे शहर में पटह बजाया गया परन्तु किसी भी मनुष्य ने स्वीकार न किया । रास्ते में यह परदेशी मनुष्य मिल गया, यह उस स्त्री का विष उतारना मंजूर करता है। राजा - (गुस्से को दबाकर) हाँ फिर आप खुशी से शीघ्र ही उन सुन्दरी का विष उतारीये, मैं आपको अपना रण रंग हाथी, एक राज कन्या और देश का एक प्रान्त दूंगा।
महाबल - महाराज ! मुझे आपका इनाम कुछ नहीं चाहिए । मैं प्रदेशी मनुष्य हूँ। और यह मेरी ही पत्नी है । यह दैव की मारी घर से निकली हुई
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