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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
सुख के दिन के विषय में परस्पर वार्तालाप कर रहे थे। उस समय महाबल कुमार ने अपने महल के सामने से आती हुई एक स्त्री को देखा । उस स्त्री का नाक कटा हुआ था, उसकी तरफ देखकर महाबल ने मलयासुंदरी से कहा - 'प्रिये! सामने आनेवाली इस स्त्री को देखो! जिसका रुदन सुनकर उस दिन अंधेरी रात में दया से प्रेरित हो मैं तुम्हें बगीचे में अकेली छोड़ उसे संकट मुक्त करने गया था; वही यह स्त्री है । मलयासुंदरी ने उसकी और गौर से देखा और आश्चर्य के साथ उसने उसे पहचान लिया । अतः वह बोल उठी-स्वामिन्! अरे, यह तो वही कनकवती है, जिसे हमने उस दिन संदूक में बंधकर गोला नदी में बहा दिया था। यह यहां पर कहां से आ गयी होगी? यह आपके पास कुछ गुप्त बात कहने के लिए आती हो ऐसा मालूम होता है । अगर इसने मुझे पहचान लिया तो लज्जा के कारण यह कुछ भी न कहने पायगी । इसीलिए यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं परदे में जा बैलूं । महाबल ने उसे वैसा करने की संमति दी।
द्वारपाल से महाबल की आज्ञा मंगाकार वह स्त्री महाबल के पास आयी और उसे नमस्कारकर एक तरफ खड़ी रही । महाबल ने भी उचित सन्मानपूर्वक उसे बैठने का इशारा किया। उसके बैठ जाने पर महाबल बोला भद्रे! तुम कौन हो? तुम्हारा नाम क्या है? कहाँ से आयी हो? क्या तुम अपना परिचय मुझे दे सकती हो? कुछ विश्वास पाकर वह छिन्न नासिका बोली-राजकुमार! मैं विपदा की मारी तुम्हें अपना चरित्र क्या सुनाऊं! खैर फिर भी सुनाती हूँ सुनो मैं चंद्रावती नरेश महाराज वीरधवल की कनकवती नामा रानी हूं । एक दिन निष्कारण ही राजा ने मुझ पर कोप किया; मुझे भी उस बात से बड़ा क्रोध आया
और उसी क्रोध में मैं तमाम वस्तुओं और अपने तमाम सुख को ठुकराकरक निकल आयी । रास्ते में मुझे एक परदेशी युवक मिला उसने मुझे गोला नदी पर मिलने के लिए संकेत किया । मैं भी रात्रि के समय उसके किये हुए संकेत स्थान पर उसको जा मिली । उस धूर्त ने मुझसे कहा – 'यहां पर चोर फिरते हैं इसलिए कुछ देर मौन धारणकर खड़ी रह और जो तेरे पास कुछ माल हो वह रक्षण के लिए मुझे दे दे । मैंने विश्वासकर अपने पास की उसे तमाम वस्तुयें दे दी । फिर
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