________________
श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
सुख के दिन उसने मुझे वहां पर पड़ी हुई एक संदूक में कुछ देर तक छिप जाने के लिए कहा। मेरी दी हुई उन वस्तुओं में से एक हार और एक कीमती कंचुक निकालकर उसने बाकी के वस्त्रादि उस संदूक में डाल दिये। चोरों के डर से और उसके कहने से जब मैं उस संदूक में बैठ गयी तब उस पापी ने उस संदूक को ताला लगा दिया । फिर संकेत किये हुए एक दूसरे पुरुष को बुलाकर वह संदूक उन्होंने गोला नदी के प्रवाह में बहा दिया ।
महाबल भद्रे! क्या उन्होंने वह संदूक जान बुझकर नदी में बहा दिया था? क्या तुम उन्हें पहचानती हो? उन्हें वैसा करने का कारण तुम्हें मालूम है ?
-
कनक – मैं उन निष्कारण अपने दुश्मनों को बिल्कुल नहीं पहचानती । मैंने उनका कुछ भी अपराध न किया था । तथापि उन्होंने मेरे साथ क्यों ऐसा किया यह मैं नही जानती ।
महाबल बिना प्रयोजन उन्होंने तुम्हारे साथ बड़ा अघटित आचरण किया। यों कह मस्तक हिला खैर, फिर वह संदूक कहां गया?
-
कनक
वह संदूक नदी प्रवाह में तैरती हुई प्रातःकाल होते ही यहां धनंजय यक्ष के मंदिर के पास आ लगी । लोहखुर नामक चोर ने उस संदूक को बाहर निकाला । ताला तोड़कर उसमें से मुझे बाहर निकाली। मुझे जीवन देनेवाले उस चोर के साथ मैं अलंबगिरि के विषमप्रदेश में बनाये हुए उसके मकान पर गयी । आपस में हमारा गाढ़ प्रेम हो गया । परस्पर अनन्य विश्वास हो जाने से नगर की चुरायी हुई तमाम लक्ष्मी उसने मुझे सन्मान और प्रेम से बतलायी । मैंने भी अपना नाम स्थान उसे सब कुछ बतलाया । दोपहर तक मेरे पास रहककर किसी कार्यवश वह नगर में आया । राजपुरुषों ने उसे पहचानकर पकड़ लिया । और राजा के स्वाधीन कर दिया । राजा ने उसे वटवृक्ष के साथ लटकाकर मरवा दिया । उस समय उसकी राह देखती हुई मैं पहाड़ के शिखर पर खड़ी थी । मेरा मिलाप होते ही थोड़े ही समय में उसकी यह दुर्दशा हुई देख मुझे बड़ा दुःख हुआ । रात्रि के समय मैं उसके पास जाकर शोक से रुदन कर रही थी । उस समय आपने वहां आकर मेरे दुःख का कारण पूछा । इसके बाद का
1
-
139