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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
हस्योद्घाटन समय दो मनुष्यों ने गुप्त वेष में रानी कनकवती के महल में प्रवेश किया । उसके रहनेवाले कमरे के द्वार बंध थे । वे दोनों पुरुष फिरते हुए दूसरे द्वार की तरफ लौटे । दरअसल में रानी के रहने वाले कमरे का यही मूलद्वार था जहाँ पर वे दोनों पुरुष अब आकर ठहरे हैं । दैववशात् कमरे का यह मुख्य द्वार भी उन्हें बंद मिला, परंतु द्वार के छिद्रों से अंदर के दीपक का प्रकाश मालूम होता था। वे दोनों पुरुष चुपचाप वहाँ ही खड़े हो गये और द्वार के छिद्र से दृष्टि लगाकर अंदर देखने लगे।
इस समय कनकवती के आनंद का पार न था । आज उसने उद्भट वेष पहना हुआ था। लक्ष्मीपूंज हार उसके हाथ में शोभ रहा था । हार के सन्मुख देख वह हर्ष के आवेश में आकर बोलती थी - 'हे दिव्यहार! मेरे बड़े सद्भाग्य से ही तूं मेरे हाथ में आया है । तेरे ही प्रताप से मैंने आज अपने मनोवांछित कार्य को सिद्ध किया है । तुझे छिपाकर अनेक प्रपंच के वचनों से राजा को कोपितकर जन्मांतर की वैरन मलयासुंदरी को प्राणदंड दिला उससे बदला लिया है । चिंतामणी के समान तेरी प्राप्ति भी बड़ी दुर्लभ है । अब से राजा को भी मेरे स्वाधीनकर सदैव मुझे इच्छित फल की प्राप्ति कराना । हर्षावेश में कनकवती को इस समय इस बात का ध्यान बिलकुल न रहा था कि मैं क्या बोल रही हूँ और मेरे इस नग्न -सत्यपूर्ण कथन को कोई सुन तो नहीं रहा है? .. कनकवती के हाथ में लक्ष्मीपूंज हार को देखकर तथा उसके पूर्वोक्त वचनों को सुनते ही गुस्से के मारे उन दोनों पुरुषों का खून उबलने लगा । शांत हुआ कोपानल फिर से विशेषतया प्रदीप्त हो गया । उनमें से एक राजपुरुष सहसा चिल्ला उठा - हा! पापीनी! तूंने मुझे प्रपंच से फसाकर ठग लिया? निर्दोष पुत्री के पास से हार चुरा कर प्रपंच के द्वारा मुझे कुपितकर निरपराध पुत्री का घात कराया! हे दुष्टा! कनकवती! तूंने मुझे कुटुम्बसहित ठगा? मेरी उस गरीब लड़की ने तेरा क्या अपराध किया था? उसने आज तक कभी किसी चींटी तक को भी तकलीफ न पहुंचाई थी। उसके शिर पर ऐसा घोर कलंक!! इस प्रकार बोलता हुआ, जोर से द्वार को तोड़ता हुआ और ऊंचे स्वर से पुकार करता
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