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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
विचित्र स्वयंवर इसलिए कृपाकर आप मेरे बचाव का कोई उपाय बतलावें।
मैंने उसके बचाव के लिए भट्टारिका के मंदिर के शिखर पर का ऊपरी पत्थर निकालकर उस पुटलिया सहित चोर को उसके अंदर ढकेल कर ऊपर उसी शिला को ढक दिया। फिर मंदिर के नजदीक रहे हुए वट-वृक्ष पर चढ़कर, मैं तुम्हारे आगमन की राह देखने लगा, इतने ही में अकस्मात् उस वटवृक्ष की खोखर की ओर मेरी दृष्टि पड़ी । उस खोकर में मुझे कितने एक वस्त्र और अलंकारादि दिख पड़े। तलाश करने पर मालूम हुआ कि वे वस्त्रालंकारादि मेरी ही वस्तुएँ थीं । कुछ दिन पहले जिस देवी ने मेरे वस्त्राभरण हरण कर लिये थे उसीने ये यहां लाकर रखे होंगे यह समझकर वे वस्तुएँ मैंने अपने कबजे कर ली । फिर जब मैंने रास्ते की तरफ दृष्टि घुमाई तो उन्मार्ग से आते हुए तुम्हे देखा । फिर शीघ्र ही वड़ से नीचे उतर मैं तुम्हें आ मिला । उस रोज का यही मेरा वृत्तांत है । प्रियकांते! अब तुम भी अपना हाल सुनाओ, तुमने किस तरह अपना कार्य किया!
मलया 'प्राणनाथ! उस दिन आपकी शिक्षा को हृदय में धारणकर मैं शीघ्र ही शहर में आयी, मगधावेश्या का मकान पूछते हुए और उसकी तलाश के लिए शहर में फिरते हुए, मैंने उसे एक मंदिर में पाया । एक किसी चालाक धूर्त ने उसे महासंकट में फंसा रखा था, इससे वह वहाँ से आगे पीछे न जा सकती थी। उसके दुःख का कारण पूछने पर निश्वास डालते हुए उसने उत्तर दिया - 'हे सत्पुरुष? मैं तुम्हें अपने दुःख की क्या बात सुनाऊं? मेरी बुद्धि कुंठित हो गयी है । मैं अपने मकान के आंगन में बैठी थी उस समय कहीं से फिरता हुआ यह धूर्त मनुष्य मेरे पास आ बैठा । मुझे यह मालूम न था कि यह मनुष्य इतना धूर्त है। मैंने हँसी में इससे कहा - 'तूं मेरा शरीर संवाहनकर, मैं तुझे कुछ दूंगी । यह मनुष्य शरीर सुश्रषा की क्रिया में बड़ा निपुण निकला। इसने मेरे शरीर को संमर्दितकर मेरी तमाम थकावट को दूर कर दिया । मैंने खुश होकर इसे भोजन करने के लिए कहा - यह बोला - 'मुझे भोजन की आवश्यकता नहीं है, तुमने
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