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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
विचित्र स्वयंवर चीजें उस चोर की पड़ी हुई खाली संदूक में डाल दीं । मैंने फिर से कनकवती से कहा - 'भद्रे! जब तक यहां पर चोरों का संचार मालूम होता है तब तक तुम इस संदूक में बैठ जाओ । क्रूर हृदया परंतु कायर स्वभाववाली कनकवती मेरी बात मंजूरकर उस संदूक में बैठ गयी । उसके अंदर बैठते ही मैंने उस संदूक को बंदकर उसमें ताला लगा दिया। इसके बाद मैंने अपने स्वामी को बुलाया, हम दोनों ने उस संदूक को उठाकर नजदीक में बहनेवाली गोला नदी में बहा दिया । फिर मेरे मस्तक पर किया हुआ जो तिलक था वह मेरे स्वामी ने अपने थूक से मिटा दिया, इससे तत्काल ही मेरा स्वाभाविक स्वरूप बन गया । अपने स्वामी की आज्ञा पाकर मैंने अपने शरीर पर चंदनादि से विलेपन कर उस बड़ वृक्ष की खोकर में मिले हुए कुंडल वगैरह आभूषणों को धारण किया । कनकवती के पास से प्राप्त किया हुआ लक्ष्मीपूंज हार और कंचुक पहनकर तथा हाथ में वरमाला ले मैं उस काष्टस्तंभ के दल में खड़ी हो गयी । मुझे इन्होंने समझा दिया था कि तूं धीरज रखना यह तमाम काम इस तरह किया जायगा । जब मैं स्वयंवरमंडप में वीणा बजाऊंगा तब तूं फालियों के बीच लगायी हुई इस कीली को जोर से खींच लेना इत्यादि शिक्षा देकर, अधिक समय तक ठंडक रहे ऐसी वस्तु मेरे पास रख के और अंदर पवन आने जाने के लिए स्तंभ के ऊपरी हिस्से में दो बारीक से सुराक रख उस फाली के साथ इन्होंने दूसरी फाली जोड़ दी। फिर मैंने अंदर की कीलिका लगा ली । इसके बाद क्या हुआ मुझे मालूम नहीं ।
महाबल – 'प्रिये! इसके बाद उस स्तंभ को मैंने ऐसे सुंदर रंग - बिरंगो से चित्रित किया कि जिससे उसके बीच की संधियाँ बिल्कुल मालूम न हो । इस समय मंदिर के पीछे उस संदूक को रखकर शहर में गये हुए चोर एक ओर चोरी का माल लेकर वापिस आये । परंतु वहां पर उस रक्षक चोर सहित संदूक न मिलने पर वे उसकी खोज में चारों तरफ घूमने लगे । मैंने उन्हें चोरों के संकेतानुसार बुलाया, ये मेरे पास आकर विश्वस्त मनुष्य के समान बोले कि यहां पर संदूक सहित एक मनुष्य था वह कहां गया? मैंने उन्हें विश्वास दिलाते हुए कहा - 'तुम इस स्तंभ को उठाकर पूर्व दिशा वाले शहर के दरवाजे के पास ले
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