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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
बन्धन मुक्ति आपके ही मुझे दर्शन हुए हैं । "उत्तम पुरुष! अगर तूं मेरा सहायक बने तो मैं उस राक्षस को स्वाधीन कर सकता हूं। आपके जैसे भद्राकृति वाले पुरुष पृथ्वी पर परोपकारी ही होते हैं । सज्जन पुरुष अपना काम छोड़कर भी परकार्य करने के लिए उद्यम करते हैं । देखो यह चंद्रमा चांदनी से अपने भीतर रहे हुए मृगलांछन को दूर न करते हुए संसार भर को धवलित करता है । जगत के वृक्ष सूर्य का ताप सहनकर प्राणियों को छाया देते हैं । सूर्य परोपकारार्थ ही आकाश में पर्यटन करता है । समुद्र नाव, जहाज आदि के क्षोभ को सहन करता है । मेघ परार्थही वृष्टि करता है । पृथ्वी तमाम जीवों को आश्रय देती है । यह सब परोपकर के लिए ही कष्ट सहन करते हैं । नदियाँ अपने पानी को स्वयं आप नहीं पीतीं । वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते । बारिस क्या धान्य भक्षण करती है? इन सब का परिश्रम मात्र परोपकार के लिए ही है । हे नरोत्तम! मैं तेरी सहायता से अपने उज्जड़े हुए शहर को फिर से पूर्व स्थिति में बसा सकता हूं। इससे इस कार्य में कारण भूत होने से तेरा जगत में कीर्ति और यश व्याप्त होगा। इसलिए मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप मेरे इस महान् कार्य में प्राणप्रण से सहायक बनें।
रात्रिदेवी ने पृथ्वी पर अपनी काली चादर बिछा दी है। अंधकार ने चारों दिशाओं में अपना साम्राज्य जमा लिया है । इस समय शून्य नगर में मनुष्य तो क्या परंतु पशुओं का भी शब्द सुनायी नहीं देता । शहर के तमाम हिस्सों में सन्नाटा छा रहा है ऐसे प्रशांत समय में जयचंद्र राजा के महल में दो युवक पुरुष कुछ आवश्यक सामग्री लेकर एक गुप्त स्थान में खड़े हैं । या तो कार्य सिद्ध करेंगे या शरीर का नाश होगा बस यही भावना उन दोनों युवकों के अंतःकरण में रम रही है ।
पाठक महाशय भ्रान्ति में न पड़े, ये दोनों युवक वर्तमान परिच्छेद के नायक विजयचन्द्र और गुणवर्मा ही हैं । परोपकार करने में तत्पर वणिक - पुत्र गुणवर्मा ने विचार किया कि मेरे किये हुए उपकार से वश होकर विजयचंद्र अपने क्रोध को शांत कर मेरे पिता और चाचा को बंधन मुक्त कर देगा । क्योंकि इसी ने उन्हें स्तंभित किया है।
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