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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
लंग में भंग वीरधवल राजा की कुमारी पुत्री हूं। आपके हृदय के साथ मेरा हृदय एक हो गया है। मेरा नाम मलयासुंदरी है।
इस पत्र को पढ़कर राजकुमार योगी के समान एकाग्र चित्त से टकटकी लगाकर, राजकुमारी की ओर देखने लगा । चार आँखों के मिलते ही दोनों का हृदय एक दूसरे की ओर खिंच गया और कुमार को वहां से आगे कदम बढ़ाना कठिन हो गया । राजकुमारी की प्रेम भरी दृष्टि ने उसको मंत्रमुग्ध सर्प के समान स्तंभित - सा कर दिया था । चित्रित मूर्ति के जैसा स्थिर होकर कुमार विचारने लगा। अहा! इस चतुर राजकुमारी ने साहस धारणकर अपना मनोगत भाव और परिचय दे दिया, परंतु इसके पूछे हुए सवाल का जवाब मुझे किस तरह देना चाहिए, कुमार इसी उधेड़ बुन में लगा हुआ था, इतने ही में उसके पीछे जल्दी - जल्दी एक पुरुष आया और कुमार को देखकर कहने लगा, राजकुमार? शहर में फिरना छोड़कर अब आप वापिस अपने मुकाम पर चलें। क्योंकि हम लोगों ने आज ही अपने नगर को प्रयाण करना है । जिस राजकार्य के लिए यहाँ आना हुआ था वह कार्य सफल हो गया ।
मनोगत भाव को दबाकर कुमार बोला - अहा! देखो, ये मकान कैसे शोभ रहे हैं? इस नगरी का किला कितना मजबूत है! राजमहलों ने इस नगरी की अत्यंत शोभा बढ़ा रखी है । मुझे तो अभी बहुत कुछ देखना है । अभी तक तो सिर्फ इन मकानों को ही देखने पाया हूं। तुम वापिस लौट चलने की बड़ी जल्दी करते हो" आने वाले पुरुष ने कहा - "राजकुमार! सेनापति का कहना है कि कुछ आवश्यक प्रसंग होने से हमें इसी वक्त देश को प्रयाण करना चाहिए । इसलिए आप जल्दी चलिए । यद्यपि इस समय वहां से कदम उठाना कुमार के लिए अत्यंत दुष्कर था, तथापि विवश होकर उसे अपने सेवक के साथ वापिस मुकाम पर जाना ही पड़ा । वह मन ही मन सोचने लगा - मेरी कितनी कमजोरी! मैं कौन हूँ इस प्रश्न का उत्तर भी कुमारी को न दे सका! धिक्कार है मेरे कलानैपुण्य को!! और मेरी तमाम बुद्धिमत्ता निरर्थक है । देश से इतनी दूर आकर भी अगर मैं कुमारी को न मिल सका तब फिर उसका मिलाप मुझे किस तरह हो सकता है? इस समय रात्रि हो गयी है, चारों तरफ अंधकार छा रहा है । मेरे साथी भी
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