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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
रंग में भंग
अभी तैयारी ही कर रहे हैं, जब तक ये तैयार हों तबतक मैं अकेला ही जाकर राजकुमारी से मिल जाऊँ और मैं कौन हूँ उसके पूछे हुए इस प्रश्न का उत्तर दे आऊँ।
पूर्वोक्त निश्चयकर किसी को कहे बगैर ही कुमार गुप्त रीति से वहाँ से चल दिया । वह शीघ्र गति से उसी महल के नीचे जा पहुंचा जहां से वापिस गया था। महल के पहले मंजिल की खिड़की खुली हुई थी, और वह किले के साथ ही लगती थी । दो तीन मंजिल के ऊपर रहने वाली कुमारी के साथ बातचीत करना सुलभ कार्य न था । तथा विशेष अंधकार होने से दृष्टि का विषय भी आच्छादित हो चुका था । अर्थात् महल की जिस खिड़की में राजकुमारी के साथ चार आँखें मिली थीं, अब अंधेरे में वहां तक नजर न पहुंचती थी, इसलिए मलयासुंदरी के मिलाप की आशा व्यर्थ सी प्रतीत होती थी । परंतु वह हिम्मतवान पुरुष निराश न हुआ । अब साहस किये बिना काम नहीं चलेगा, यह सोचकर एक ही छलांग में जमीन से किले पर जा चढ़ा । वहां से पास में ही पहले मंजिल की खिड़की खुली हुई थी। राजकुमार ने उसी खिड़की से अंदर प्रवेश किया। जिस खिड़की से कुमार ने प्रवेश किया था । वह रास्ता वीरधवल महाराज की दूसरी रानी कनकवती के महल में जाता था और उसके ऊपर के मंजिल में राजकुमारी मलयासुंदरी रहती थी । संयोग वशात् इस समय कनकवती के महल में उसके सिवा एक भी दास और दासी न थी । इन अंधेरी रात में अपने महल में प्रवेश किये हुए राजकुमार को देखकर रानी कनकवती सोचने लगी अहा ! ऐसे सुंदर रूपवाला और इतना साहसी पुरुष आज तक मैंने कभी नहीं देखा । कनकवती ने खिड़की के द्वारा प्रवेश करते हुए राजकुमार को प्रथम न देखा था; इससे वह सोचने लगी इतने सारे पहरेदार होने पर भी इस पुरुष ने यहाँ किस तरह प्रवेश किया होगा? सचमुच ही यह कोई विद्याधर या महान् पुरुष मालूम होता है । यह किसी भी प्रयोजन से प्रसन्नता धारण किये बेधड़क चला आ रहा है । इस प्रकार विचार करती हुई राजवल्लभा कुमार के रूप से मोहित हो उसके जाने के रास्ते में खड़ी होकर उसे कहने लगी; हे नरोत्तम! सुख से आइए इस आसन पर
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