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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
हस्योद्घाटन राजा - "पापिष्टा लड़की! अयोग्य कार्यकर के भी मुझसे अपराध जानना चाहती है? मुझे मालूम न था कि तूं ऊपर से भोली देख पड़ती हुई भी भीतर से इतनी गूढ़ हृदय और कपट प्रवीण है । मैं अंदर से विषतुल्य और ऊपर से अमृत के समान उसके मीठे वचन सुनने नहीं चाहता । मैं अब उस दुष्ट का मुंह देखना नहीं चाहता और न ही मुझे उसके इस कपटपूर्ण नमस्कार की आवश्यकता है। जिस तरह कोतवाल कहे उस तरह वह अपने प्राणों को त्याग दे।
राजा के अंतिम वचन सुनकर वेगवती के दुःख का पार न रहा । उसका हृदय भर आया। आँखों से आँसु बहने लगे परंतु अंत में धीरज धारणकर उसने मलयासुंदरी का महाराज को अंतिम संदेश सुनाया । 'महाराज! अगर आपका यही अंतिम निश्चय है तो मलयासुंदरी गोला नदी के किनारे पर जो पातालमूल नामक अंधकार पूर्ण गहरा कुंआ है उसमें झंपापातकर मृत्यु शरण होगी। इतनी बात कहकर और राजा का उत्तर सुनने की भी प्रतिक्षा न करके वेगवती वहाँ से तत्काल ही वापिस लौट गयी और मलयासुंदरी के पास जाकर उसने सविस्तार तमाम हकीकत कह सुनायी । मलयासुंदरी पर इस समय अकस्मात् विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ने से उसकी यह सच्ची परीक्षा का समय था। उसने जो बाल्यवय में संस्कारी शिक्षण प्राप्त किया था उसके प्रभाव से हिंमत
और धैर्य का अवलंबन ले वह अपने ही घोर कर्मों की निंदा करती थी। उसके मुख से निम्न प्रकार के शब्द निकलते थे -
"जो भाग्य करे वह होता है, नहीं होता हृदयचिंतित तेरा हे चित्त! सदा उत्सुक होकर, करता उपाय क्यों बहुतेरा!" कठिन है बनना मन रे तुझे मरण का सहना दुःख है
मुझे। मम कुकुर्म पुरातन रोष है, जनक का इसमें कब दोष
है ॥