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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
दुःख की पराकाष्ठा रूद्ध कंठवाली वेगवती ने रूदन करते हुए जवाब दिया - "हे धीर वीर शिरोमणि! महाराज! यह समाचार सुनने के लिए अपने कान और हृदय को वज्र समान कठिन कर लो । महारानी का जब दाहिना नेत्र विशेष फड़कने लगा तब उसे महल में बिल्कुल शांति न मिली, इससे हम सब शहर के बाहर उद्यान में गये, परंतु बाग बगीचे वगैरह विश्रान्ति के अनेक स्थानों में फिरते हुए भी महारानी के चित्त को चैन न पड़ा, तब फिर हम सब वापिस महल में आयी महारानी शयनगृह में जाकर पलंग पर सो गयी और मुझे उन्होंने बगीचे से पुष्प
और पत्ते लाने के लिए भेज दिया । महारानी को निद्राधीन हुई देखकर तमाम परिवार खाने पीने आदि के कार्य में लग गया। मैं थोड़े ही समय में बगीचे से उनके उपयोगी पत्ते और पुष्प लेकर वापिस आयी। शयन गृह में जाकर देखा तो महारानी के प्राण रोग या विषप्रयोग या अन्य किसी महान् दुःख से गये हैं! हलाहल जहर के समान दासी के मुख से पूर्वोक्त अमंगल वचन सुनते ही राजा वीरधवल सहसा मूर्च्छित हो जमीन पर गिर पड़े। पास में रहे हुए मंत्रीमंडल द्वारा शीतल वायु और द्रवित चंदन के सिंचन करने से कुछ देर बाद महाराज होश में आये । जागृत अवस्था में आते ही महाराज वीरधवल रानी के वियोग से व्याकुल हो निम्न प्रकार विलाप करने लगे। ___ "अरे निर्दय दैव! तूंने मुझे प्रथम क्यों न मार डाला, जिससे रानी के अमंगल की बात मुझे अपने कानों से सुनने का प्रसंग न आता । अरे दुर्दैव! तूंने छिपकली की पूंछ के समान तड़फती हुई मेरी अर्धआत्मा को छेदन कर डाला! हे दक्षदेवी! दाहिना नेत्र फड़कने के बहाने से तूंने अपना मृत्यु प्रथम ही बतलाया था तथापि मैं तेरा रक्षण न कर सका! तेरे सिर पर आनेवाली विपत्ति को जानते हुए भी मैं उसका प्रतिकार न कर सका इसलिए मैं महा अज्ञानी बुद्धिहीन और घोर पापी हूं । अगर ऐसा न होता तो मैं तेरी बात पर विश्वास रखकर प्रथम से ही तेरे रक्षण का कुछ उपाय अवश्य करता । इस प्रकार अपने
आपकी निन्दा करते हुए और नेत्रजल से जमीन को सिंचन करते हुए राजा ने तमाम राजपरिवार को रुलाया । इस समय राजा वीरधवल की शोकातुर अवस्था में रानी के वियोग से पागल की तरह हालत हो गयी । राजा की यह स्थिति
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