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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
शोक में हर्ष
होगी? इत्यादि विचारों की उलझन में कदम कदम पर ठोकरें खाती हुई मैं कितनी दूर तक उसी दिशा में चली गयी ! इतने ही में मुझे सामने मेरे पुण्य के उदय से एक विशाल भव्य मंदिर नजर आया । उस मंदिर के द्वार खुले हुए थे, इसलिए घैर्य से मैंने उसमें प्रवेश किया। अंदर जाकर देखा तो वृषभ लांछन से मालूम हुआ कि उसमें ऋषभ देव प्रभु की सुंदर और शांत मूर्ति विराजमान है । प्रभु की प्रतिमा के दर्शन से मुझे उस महासंकट में कुछ विश्रांति मिली। मंदिर की प्राप्ति से मेरी अनेक आशायें सजीवन सी हो उठी । मानो मैं तमाम दुःख को भूल गयी हूं, मेरे मन में ऐसी हिम्मत और शांति प्राप्त हुई । ऐसे निर्जन जंगल में और आपत्ति के समय देवाधिदेव का दर्शन हुआ यही मेरे भविष्य के शुभसूचक की निशानी थी। मैं उस संकटहर शांतिकर, महाप्रभु की एकाग्र चित्त से स्तुति करने लगी ।
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मरु
"हे अनाथों के नाथ! परदुःख भंजन ! कृपा के समुद्र ! वीतराग देव! मैं आपकी शरण में आयी हूं । हे शरणागत वत्सल बिरूद धारण करनेवाले सर्वज्ञ देव! संसार में आपके हितोपदेश से अनादि कर्मबंधन से मुक्त हो भव्यजीव परम पद को प्राप्त करते हैं । हे प्रभो! आपकी दर्शन प्राप्ति अंधकार में दीपक, भूमि में सरोवर, शुष्क पहाड़ पर कल्पवृक्षों की घटा और समुद्र में जहाज प्राप्ति के समान आनंददायक हैं । हे भगवन्! मेरे बाह्याभ्यन्तर दुःखों का अंत करो।
इस तरह शांतचित्त से भगवान की स्तुति करके जब मैं मंदिर से बाहर आयी तो वहां पर मुझे दिव्यरूप धारण करनेवाली एक स्त्री मिली । वह मेरे पास आकर प्रसन्न हो बोली - 'सुन्दरी! तुझ पर इस प्रकार की विपत्ति के बादल आने पर भी जिनेश्वर भगवान पर तेरी ऐसी अटल भक्ति और अटूट धर्मपरायणता देखकर ऋषभदेव प्रभु के शासन की अधिष्ठाता देवी मैं तुझे सहाय करने के लिए प्रकट हुई हूं। इस प्रभु के मंदिर के नजदीक ही रहनेवाली और देवमंदिर का रक्षण करनेवाली, मैं चक्केश्वरी देवी हूं । इस मलयाचल पहाड़ के ऊपर मेरा भुवन होने से मुझे लोक मलयादेवी भी कहते हैं । मेरे ही धर्म को पालन करनेवाली बहन ! तूं धैर्य धारण कर । भय को त्याग दे । मैं तेरा रक्षण
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