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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
शोक में हर्ष
सब लोग नजदीक में रहे हुए उस वट वृक्ष की छाया में यथोचित स्थान पर जा बैठे तथा इस दुर्घटना का वृत्तान्त सुनने के लिए उत्सुक हो रानी के मुखमंडल की और देखने लगे ।
"प्रियदेव! यह बात तो आपको मालूम ही थी कि मेरा दाहिना नेत्र फड़कता था । उस अशुभ निमित्त से मुझे किसी जगह पर भी शांति प्राप्त न हुई । आपके गये बाद मैं वन उपवन, बगीचे आदि में घूमकर शांति प्राप्त करने के लिए बहुत ही प्रयत्न किया । परंतु कहीं पर भी चित्त स्थिर न होने से मैं वापिस महल में आ गयी । और दासी वेगवती को मैंने फूल पत्र लेने के लिए भेज दिया। उस समय मेरी आंखों में कुछ निद्रा भरने लगी थी अतः मैंने आराम पाने के लिए पलंग का आश्रय लिया । मुझे मालूम है कि निद्रागत हो जाने पर तुरंत ही मुझे किसी दुरात्मा ने उठा लिया। महल से उठाकर मुझे किसी एक पहाड़ के शिखर पर रख दिया गया । मुझे उठा लानेवाला दुष्ट व्यक्ति शीघ्र ही कहीं अन्यत्र चला
गया ।
इस समय मारे भय से मेरा सारा शरीर काँपने लगा । वह पहाड़ी प्रदेश यद्यपि रमणीय था तथापि मुझे उस समय वह बहुत ही भयानक प्रतीत होता था । उस पर्वत पर रहे हुए चंदन वृक्षों की सुगंधि का परिमल पवन के साथ मेरे शरीर को स्पर्श करता था । तथापि वह मुझे दुःखद मालूम देता था । चारों तरफ दृष्टि घुमाती हुई मैं उस शिलातल्प से उठी । मैंने सावधान होकर सब तरफ दूर- दूर तक देखा, परंतु वहां पर कहीं मनुष्य की छाया तक भी न देख पड़ती थी। मात्र सिंह, व्याघ्र, रींछ और उसी तरह के अन्य विकराल प्राणियों के शब्द सुनायी देते थे । ऐसी भयंकर परिस्थिति में साहस धारणकर मैं एक और चल पड़ी। मैं चलते समय विचार करती थी कि कहाँ वह मेरी रमणीय चंद्रावती नगरी और कहां यह निर्जन प्रदेश! हा मेरे प्राण वल्लभ कहाँ रहे ! और अब मुझे उनका किस तरह मिलाप होगा? इस निष्कारण दुश्मन ने किसलिए मेरा अपहरण किया? इस संकट से अब मैं किस तरह मुक्त होऊंगी? इस भयानक जंगल में मैं किस तरह रह सकूंगी? मेरे बाद वहाँ पर मेरे प्राण प्यारे की क्या दशा
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