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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
बन्धन मुक्ति
अहा! पुत्र का कैसा पितृवात्सल्य! कैसी भक्ति! कैसा प्रेम ! पिता को दुःख से मुक्त करने के लिए ऐसे दुष्ट राक्षस के पंजे में फसने के दुःसाध्य कार्य को भी उसने स्वीकार किया । क्योंकि इस समय राक्षस के घी से चरण तलिए मर्दन करने का भयानक काम उसने अपने जिम्मे लिया है ।
विजयचंद्र ने कहा - गुण वर्मा! जब तुम राक्षस के चरण तलिए घीसे मर्दन करने का काम करोगे उस वक्त मैं स्तंभनी विद्या के एक हजार जाप द्वारा अंतर्मुहूर्त में उसे स्तंभितकर स्वाधीन कर लूंगा । इस प्रकार परस्पर संकेतकर वे दोनों युवक घोरांधकार में अपने उद्देश को सिद्ध करने की धुन में सावधान हो छिपकर खड़े हैं। ठीक इसी समय भयानक रूप में उस राक्षस ने महल में प्रवेश किया। वह आते ही बोलने लगा अरे ! आज इस महल में मनुष्य की बू कहाँ से आ रही है? विजया! क्या महल में आज कोई मनुष्य आया है? तुझे मालूम हो तो बतला, मैं अभी उसको शिक्षा दूंगा ।"
विजया ने कहा - "मैं खुद ही मनुष्य हूं, आपके भय से यहां पर मनुष्य किस तरह आ सकता है? यह उत्तर सुनकर विश्वासकर वह राक्षस एक पलंग पर सो गया । उसे कुछ निद्रित होता देख विजया तत्काल वहां से उठकर एक तरफ हो गयी, उसके बदले स्त्री वेश में गुणवर्मा वहां आ उपस्थित हुआ और साहस धारणकर धीरे से राक्षस के पैर के तलिए मर्दन करने लगा इधर विजयचंद्र भी सावधान रहकर स्तंभिनी और वशकारिणी विद्या का जाप प्रारंभ कर दिया । मनुष्य गंध आने से राक्षस वारंवार पलंग से उठता है परंतु उस वक्त गुणवर्मा द्वारा चरण मर्दन की क्रिया झड़प से होने के कारण वह मूर्छित साहो निद्रालू होकर फिर शय्या में लेट जाता है । इस तरह मंत्र जाप पूरा होने पर विजयचंद्र के इशारे से गुणवर्मा ने चरण मर्दन करने की क्रिया बंद कर दी और वे दोनों जने राक्षस के सन्मुख आ खड़े हुए । जागृत हो उन युवकों को अपने 'सन्मुख खड़े देख उस राक्षस ने क्रोधायमान हो उन्हें मारने के लिए उपक्रम किया । परंतु मंत्र के प्रभाव से वह उठने तक के लिए भी समर्थ न हो सका । अंत में जब उसका कुछ भी जोर न चला तब शांत होकर बोला- मंत्रबल
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