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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
बन्धन मुक्ति अपने परम उपकारी और मित्र गुणवर्मा को विजयचंद्र ने प्रधान पद की मुद्रा और कुछ देश आदि देने के लिए अति आग्रह किया तथापि निर्लोभी गुणवर्मा ने उसका बिलकुल स्वीकार न किया । बल्कि उल्टा विजयचंद्र का विशेष सत्कार करके उसके रस का तूंबा उसे वापिस दिया। कृतज्ञ विजयचन्द्र ने वह रस का तूंबा अति आग्रहपूर्वक गुणवर्मा को ही वापिस दे दिया । गुणवर्मा ने भी विजयचंद्र के विशेष आग्रह से उस रसायन रस को ग्रहण किया । इस प्रकार उन दोनों की मित्रता में अधिक वृद्धि हुई । यद्यपि ऐसे परोपकारी नररत्न
और मित्र का वियोग सहन करना दुःसह्य था । तथापि राज्यादि कार्य भार की चिन्ता से विजयचंद्र को वापिस स्वदेश जाना पड़ा।
महाराज वीरधवल कहते हैं "देवी! यह वृत्तान्त अभी थोड़ी देर पहले स्वयं गुणवर्मा ने मेरे पास आकर मुझे सुनाया है । मेरे राज्य में उसके पिता और चाचा ने किये हुए विश्वासघात के महान् अपराध की उसने वारंवार क्षमा याचना की, गुणवर्मा की पितृभक्ति, परोपकारता, निर्लोभता, उदारता, निडरता और गंभीरतादि गुणों से मुझे बड़ा संतोष हुआ, इस कारण उसके पिता
और चाचा के किये हुए अपराध को मैंने क्षमा कर दिया । अभी कुछ देर पहले ही गुणवर्मा मुझसे मिलकर अपने घर गया है। प्रिये! जब से मैंने गुणवर्मा और विजयचंद्र का इतिहास सुना है तब से मेरे मन में अनेक प्रकार के संकल्प विकल्प पैदा हो रहे हैं । मेरी शांत वृत्तियाँ अशांत हो उठी है और मुझे बिलकुल
चैन नहीं पड़ती। प्यारी! अब तुम मेरी चिंता का कारण भली प्रकार समझ गयी होंगी । शूरचन्द्र राजा के पुत्र विजयचन्द्र ने अपने गये हुए राज्य को फिर से प्राप्त किया और भाई के दुश्मन से बदला लिया । गुणवर्मा ने मृत्यु के समान आपत्ति को स्वीकारकर संकटरूपी समुद्र में डूबते हुए पिता का उद्धार किया ।
प्रिय देवी! जिनके पुत्र हैं, वे मनुष्य धन्य हैं । अभी तक हमारे घर एक भी पुत्र - पुत्री का जन्म नहीं हुआ; यह मेरी चिंता का मूल कारण है । प्रिय कोमलांगी! मेरे बाद मेरे कुल में देवगुरु की पूजा कौन करेगा? धर्मस्थानों का उद्धार कौन करेगा? और कौन मेरे वंश को धारण करेगा? प्रिय सुलोचने! मेरे से ही मेरे पूर्वजों के वंश - वृक्ष का उच्छेद होगा । यही चिंताग्नि मेरे हृदय मंदिर
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