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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
बन्धन मुक्ति
में आ जाय, उस समय आत्म ज्ञान में प्रमादी और स्वरूप को भूले हुए अभ्यासी प्रबल कर्म के उदय को रोकने में असमर्थ हो तन, मन पर काबू न रखकर अकार्य में प्रवृत्त होते हैं । इसीलिए आत्मस्वरूप प्रकट करने वाले मनुष्यों को ऐसे निमित्तों से दूर ही रहना चाहिए ।
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वह तपस्वी भोजन करते समय अपने आपको भूल गया । तपस्या से ग्लानि को प्राप्त हुए शरीर में कामदेव ने प्रबल जोश किया, जिससे उसका दुर्बल शरीर भी सबल मालूम होने लगा। उस वक्त तो वह भोजन करके अपने स्थान पर चला गया, परंतु रात्रि में कामांध होकर वह तपस्वी गोधा के प्रयोग से मेरे महल में आ घुसा और मेरे पास आकर विषय की याचना करने लगा । जब मैंने उसका कहना मंजूर न किया तब मुझे साम, दाम, दंड और भेद के नीति वचनों से डराकर अपनी कार्य सिद्धि के लिए प्रेरित करने लगा, यह तपस्वी है इसीलिए इसे जानसे मरवाना ठीक नहीं यह समझकर मैंने भी उसे साम, दाम, दंड भेद की नीति द्वारा उसका मन स्थिर करने के लिए उसे बहुत कुछ समझाया तथापि उसकी विषयान्धता का अनुराग जरा भी कम न हुआ । इस प्रकार हम दोनों में झगड़ा चल रहा था, इतने में ही शयन करने का समय हो जाने से आपके बड़े भाई महाराज जयचन्द्र शयन गृह के दरवाजे पर आ पहुंचे और हममें होते हुए गुप्त वार्तालाप को उन्होंने द्वार के पीछे छिप कर सुन लिया । तपस्वी का बोल सुनते ही वे तत्काल क्रोधातुर हो गये और उस तपस्वी को सिपाहियों द्वारा बंधवा लिया । प्रातः काल होते ही उसके दुष्कर्मों की वार्ता मनुष्यों में इस तरह पसर गयी जैसे पानी में तेल का बिंदु । उसके भक्तों में भी उसके प्रति तिरस्कार की भावनाएँ प्रबल हो उठीं और सब लोग उसकी निन्दा करने लगे । राजा ने उसे बुरी मृत्यु से यमराज का अतिथि बना दिया ।
मरते समय कुछ शुभ भाव के परिणाम से तथा कुछ अज्ञान तपस्या के पुण्य से वह तपस्वी मरकर राक्षस जाति के देवों में राक्षस रूप से पैदा हो गया। तपस्वी के भव में हुए अपने अपमान को याद करके राजा और प्रजा पर वैरभाव धारणकर वह वहाँ आया । "मैं वही तपस्वी हूं जिसे राजा ने मरवा दिया था ।
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