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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
बन्धन मुक्ति कितनेक दिन लक्ष्मीपुर में रहकर माता से मिलने की उत्कंटा से मैं स्वदेश जाने को पीछे लौटा । रास्ते में चंद्रावती में रस का तूंबा लेने के लिए सेठ की दुकान पर गया, परंतु न जाने किस तरह मेरे तूंबे में रहे हुए लोह वेधक रस का लोभाकर को पता लगने से उसने उसे छिपा लिया और मुझे असत्य उत्तर दिया । बहुत कुछ समझाने बुझाने पर भी उन लोभांध व्यापारियों ने मेरा रस का तूंबा मुझे न दिया । तब अंत में कर्तव्य के अनुसार उन्हें शिक्षा देकर मैं वहाँ से अपने शहर की तरफ चल दिया । जब मैं वहाँ से देश विदेश फिरता हुआ यहां आया तब धनधान्य परिपूर्ण और प्रजा से शून्य अपने पिता की राजधानी को इस हालत में पाया कि जैसा तुम खुद इस वक्त देख रहे हो।
पाठकों को याद होगा कि अपने पिता और चाचा को बंधन मुक्त कराने के लिए गुणवर्मा के किये हुए अनेक उपाय निष्फल गये । उस वक्त निराश होकर वह महान चिंता में पड़ा था। अंत में विचारकर उसने यह निर्णय किया कि जिसके द्वारा यह दुःखाग्नि प्रकट हुई है उसी से शांत भी होगी । अब उसी की शरण लिये बिना किसी तरह छुटकारा न होगा । यह निश्चयकर वह उस मनुष्य को पहचानने वाले एक अपने नौकर को साथ लेकर उस युवक की खोज में चंद्रावती से निकल पड़ा था । उस सहायक को बीमार होने से रास्ते में ही छोड़कर गुणवर्मा स्वयं ही थका पका आज इस शून्य नगर में आ पहुंचा है, और अपने बुजुर्गों के दुःख से दुःखित होकर वह जिस मनुष्य की तलाश में फिरता था आज वही इस शून्य नगर में प्रवेश करते हुए सन्मुख आ मिला। पाठक यह भी समझ गये होंगे कि शून्यनगर में गुणवर्मा को मिलने वाला युवक कुशवर्धनपुर के राजा शूरचंद्र का विजयचंद्र नामक कुमार है ।
मेरे पिता और चाचा को स्तंभन करनेवाला और जिसे ढूंढने के लिए मैं वन, उपवन, ग्राम और नगर भटकता फिरता हूँ, वह महाशय यह स्वयं ही है। यह जानकर गुणवर्मा को हिम्मत आयी । जब तक विजयचंद्र के संपूर्ण इतिहास से मैं वाकिफ न हो जाऊँ तब तक अपना उद्देश इसके सामने प्रकट करना सर्वथा उचित नहीं । यह निर्णयकर गुणवर्मा ने विजयचंद्र से कहा "भाई! पूरा वृत्तान्त
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