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भूमिका
xiii
समाधान कर लिया गया है उसी प्रकार से यहाँ भी समाधान किया जा सकता हैं।"
यद्यपि आदरणीय पण्डित जी ने दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से यहाँ इस समस्या का समाधान तत्त्वार्थसूत्र के उस सूत्र की, सर्वार्थसिद्धि की व्याख्या के आधार पर करने का किया है। किन्तु यहाँ मेरा दृष्टिकोण कुछ भिन्न है। षट्खण्डागम में ऐसे अनेक तथ्य पाये जाते हैं,जो दिगम्बर परम्परा की आज की मूलभूत मान्यताओं से अन्तर रखते हैं। यदि हम यहाँ स्त्री में सातवें गणस्थान की सम्भावना और स्त्री-पुक्ति के समर्थक उसके प्रथम खण्ड सूत्र ९३ की विवादास्पद व्याख्या को न भी लें, तो भी कुछ प्राचीन मान्यताएँ पखण्डागम की ऐसी हैं, जो प्रस्तुत जीवसमास से समरूपता रखती हैं और दिगम्बर परम्परा की वर्तमान मान्यताओं से भिन्नता। आदरणीय पण्डित जी ने यहाँ यह प्रश्न उठाया है कि जीवसमास में १२ स्वर्गों की ही मान्यता है, किन्तु स्वयं पट्खण्डागम में भी १२ स्वर्गों की ही मान्यता हैं। उसके वर्गणाखण्ड के प्रकृति अनुयोगद्वार को निम्न गाथाएँ १२ स्वर्गों का ही निर्देश करती है
सक्कीसाणा पठमं दोव्वं तु सणक्कुमार• माहिंदा। तच्च तु सम्ह-लतय सुक्क-सहस्सारया चोत्या।।
--५/५/७०; पृष्ठ सं०- ७०५ आणद-पाणदवासी सह आरण-अच्छुदा य जे देवा। पस्संति पंचमखिदि छट्ठिम गेवज्जया देवा।। - ५/५/७१ सव्वं च लोगणालि पसंति अणुतरेसु जे देवा। सोते य सकम्मे रूपगदमणंतभागं च।।
-- ५/५/७२, पृष्ठ सं०- ७०६ मात्र यह ही नहीं, जिस प्रकार जीवसमास में पाँच ही मल नयों की चर्चा हुई है, उसी प्रकार पखण्डागम में भी सर्वत्र उन्हीं पाँच नयों का निर्देश हुआ है। तत्वार्थसूत्र की प्राचीन भाष्यमान परम्परा भी पाँच मूल नयों का ही निर्देश करती है, जबकि सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ में सात नयों की चर्चा है। वस्तुतः तत्त्वार्थसूत्र का भाष्यमान पाठ षट्खण्डागम और जीवसमास किसी प्राचीन धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। चाहे हम परम्परांगत आधारों पर इन्हें एक-दूसरे के आधार पर बनाया गया न भी मानें तो भी इतना तो निश्चित ही है कि उनका मूल आधार पूर्वसाहित्य की परम्परा रही है।