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समीक्षा
गणों का नाम है और व्यवहार उसकी प्रवृति का नाम है अर्थात् किमो द्रव्य के गुण उसो द्रव्य में विवक्षित करने का नाम सद्भूत व्यवहार नय है यह नय उसी वस्तु के गुणों का विवेचन करता है. इसलिये यथार्थ है। इस नय में यथार्थ पना केवल इतना ही है कि यह एक अखण्ड वस्तु में से गुण गुणी का भेद करता है । तथा वस्तु के सामान्य गुणों को गौण रख कर उसके विशेष गुणों का ही विवेचन है। "सामान्य शास्त्रतो नूनं 'वशेषो वलबान भवेत्" इस कथन से यह नय बलवान है।
सी लये इसके विषय में आचार्य कहते हैं । किअस्यावगमे फलमिति तदितर वस्तु निषेधवुद्धिः स्यात् । इतरविभिन्नी नय इति भेदाभिव्यञ्जको न नयः ५२७
पंचाध्यायी इस नवक समझनेपर एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में निषेध बुद्धि होजाती है । अर्थात् एक पदार्थ से दूसरा पदार्थ बुदाही दीखने लगता है इसलिये यह व्यवहार नय एक पदार्थको दूसरे पदार्थ से भिन्न प्रतीति करानेवाला है एकही पदार्थ में भिन्नताका सूचक भी नहीं है अतः सद्भत व्यवहार नय वस्तु के विशेष गुणोंका विवेचन करता है इसलिये वस्तु अपने विशेष गुणोंद्वारा दुसरी वस्तु से भिन्न ही प्रतीत होने लगती है । जैसे जीवक्य झान गुण इस नय द्वारा विवक्षित होने पर वह जीवको इतर पुद्गलादिद्वयों से भिन्न सिद्ध कर देता है। किन्तु ऐसा भी नहीं समझना कि वह जीव को उसके गुणों से जुदा करदेता है । बस यही इस नय का फल है । इस नयके द्वारा ही यह जाना जा सकता है कि शात अनन्त गुणात्मक है और दूसरे द्रव्योंसे सध्या भिन्न है जोब अनादिकाल से कमों के साथ एकक्षेत्रावगाही हो रहा है
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