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जैन तत्त्व मामांता की
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नय निक्षेपामा भेदोपचाराभ्याम् वस्तु व्यवहरतीति व्यवहारः ऐसा कहा है इसलिये भेदोपचार लक्षणवाला अशंभी अपरमार्थाभूत है और उसका कथन करने वाला प्रमाण, नय, निक्षेप भी अपरमार्थभूत हैं। “भेदोपचारलक्षणोऽर्थाः सोऽपरमार्थः श्रतएव व्यवहारो ऽपरमार्थाप्रतिपादकत्वादपरमार्थाः इस पर आपने शंका उठाकर समाधान किया है वह भी प्रमाणादिकको अपरमार्थरूप सिद्ध करने के पक्ष में किया है। __ शंका-यदि भिन्न कत', कर्म आदि रूप व्यवहार उपचरितही हैं तो शास्त्रों में उसका निर्देश क्यों कियागया है ? समाधानएकतो निमित्तका ज्ञान कराना इसका मुख्य प्रयोजन है इसलिये यह कथन कियागया है (पृष्ठ =) अब यहां पर यह देखना है कि देव सेन आदि अचार्यो ने प्रमाणादिकको अपरमार्थाभूत किस दृष्टिसे कहा है । तथा शास्त्रोंमें इनका कथन केवल निमित्तका ज्ञान कराने के लिये ही किया गया है या वस्तु स्वरूपका परिज्ञान कराने के लिये किया गया है। अथवा वस्तु स्वरूप का ज्ञान इन नय प्रमाणादिक के बिना भी हो सकता है क्या अथवा जिस वस्तुका ज्ञान करना है वह वस्तु (अर्थ) कैसा है । वह केवल एक रूपही है या वह अनेक रूपभी है अर्थाका (द्रव्यका) आचार्यों ने ऐसा लक्षण किया है कि
___गुणपर्ययवद् द्रव्यम्" अर्थात गुण और पर्याय इन करि सहित द्रव्य है । यहां गुण पर्याय जाके होय. सो द्रव्य है । द्रव्यका अन्वयी सो गुण है, व्यतिरेकी पर्याय है । इन गुण पर्यायनिकरि युक्त होय सो द्रव्य है। "गुणइदिदव्वविहाणं दव्ववियारोहि पज्जवो भणिदो। तेहिं अणुणं दव्वं अजुदपसिद्ध हवे णिच्चं ।
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