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समीक्षा
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दूसरी ओर सम्यक नियतिको स्थान भी मिला हुआ है, इसलिये इसको स्थान देने से हमारे पुरुषार्थकी हानि होती है और हमारे समस्त कार्यं यन्त्र के समान सुनिश्चित हो जाते हैं यह कह कर सम्यक नियतिका निषेध करना उचित नहीं है इत्यादि पृष्ठ १८४
पडितजी ! सम्यक नियतिका आगम में कहीं विधान हो तो उसका निषेध करना उचित नही कहा जा सकता किन्तु श्रागम में कहीं पर भी सम्यक नियतका विधान नहीं है फिर उसका निषेध करने में अनुचितता किस बात की है ! ध्यागम के विपरीत कथनका निषेध करना सवथा उचित हो है । जैसा आप सम्यक नियतिका लक्षण करते हैं वैसा ही आचार्योंने नियतिवाद पाखंडका लक्षण किया है।
यत्तु यदा येन यथा यस्य नियमेन भवति तत्तु तद् तेन तथा तस्यैव भवेदिति नियतिवादार्थः ८८२
भावार्थ- जो जिस काल जिहि जैसे जिसके नियम करि है सो तितकाल तिहि करि तैसे तिसहीके हो है ऐसा नियमकरि ही सवको मानना सो नियतिवाद है। इस नियतिवाद में भी कार्यकारण भावका अभाव नहीं हैं, इसमें भो "जिहिकरि जैसे जिसके नियम करि है यह जो शब्द है वह कार्य कारणभावको ही प्रगट करते हैं। अर्थात् जिसकालमें जिसके जरिये जैसा जिसके होना है वह उसी प्रकार सबके होता है ऐसा मानना सो नियतिवाद है । आपकी मान्यता भी तो यही है कि - "जिस जन्म अथवा मररणको जिस जीवके जिस देश में जिस विधि से जिसकाल में नियत जाना है उसे उस जीवके उस देशमें उस विधिसे उसकाल में शक्र अथवा जिनेन्द्रदेव इनमें से कोन चलायमान कर सकता है अर्थात् कोई भी चलायमान नहीं कर सकता है" पृष्ठ १८३
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