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जैन तत्त्व मोमांसा की
टीका -- मिध्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो हिभावाः ते तु प्रत्येकं मयूर मुकुरंदवज्जीवाजीवाभ्यां भाष्यमानत्वाज्जीवाजीवौ । तथाहि यथा नील कृष्ण हरित पीतादयो भावास्वद्रव्य स्वभावत्वेन मयूरेण भाव्यमाना: मयूर एव यथा च नील हरित पीतादयो, भावा: स्वच्छता विकार मात्रेण मुकुरुन्देख भाव्यमाना मुकुरंद एव तथा मिध्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयोभावाः स्वद्रव्य स्वभावत्वेन जीवेन भाव्यमाना अजीव एव तथैव च मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरातिरित्यादयो भावाश्चैतन्य विकार मात्रेण जीवेन भाव्यमाना जोव एव काविह जीवाजीवाविति चेत्" ।
अर्थात् - जैसे मयूर के नील कृष्ण हरित पीत आदि वरण रूप भाव हैं ते मयूर निज स्वभाव करि भाये हुये मयूर ही है। बहुरि जैसे दर्पण विषे तिनि वर्णनिका प्रतिविम्ब दाखे हैं ते दर्पण की स्वच्छता निर्मलता का विकार मात्र करि भाये हुये ते दर्पण ही है । मयूर की अह आरसा की अत्यंत भिन्नता है । तैसे ही मिथ्या दर्शन अज्ञान अविरति इत्यादिक भाव हैं अपने . अजीव के द्रव्य स्वभाव करि अजीब पणे करि भाये हुये हैं ते अजीव ही है बहुरि ते मिथ्यादर्शन अज्ञान अविरति श्रादि भाव चैतन्य के विकार मात्र करि जीव करि भाये हुए जीव ही हैं ।
भावार्थ -- कर्म के निमन्त तें जीवविभाव रूप परिणा में हैं ते तो चैतन्य के विकार है ते जीव हैं । बहुरि जे पुद्गल मिथ्यात्वादि कर्म रूप परिणमे हैं ते पुद्गल के परमाणु हैं। तथा तिनका
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