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जैन तत्त्व मीमांसा की
केवलज्ञानका ऐसा प्रभाव है फिर भी आज तक किसी श्राचाय ने किसी विद्वानने क्रमबद्ध पर्यायका उल्लेख नहीं किया | यदि यह मान्यता यथार्थरूप में होती तो इसका उल्लेख शास्त्रों में अवश्य मिलता किन्तु इसका उल्लेख शास्त्रों में नहीं मिल रहा हैं इससे यह सिद्ध होता है कि इसकी मान्यता यथा
रूप में नहीं है । क्यं कि केवलज्ञानमें हमारी त्रिकालवर्ती समस्त अवस्था झलकती है तो भलकती रहो जिससे हमको क्या ? दर्पन की तरह केवलज्ञान को स्वच्छता है इसलिये हमारा परिणमन केवलज्ञान में झलकता है यह उसका स्वभाव है ।
वह अपने स्वभावानुसार समस्त पदार्थों को प्रतिबिम्बित करता रहता है और हम हमारे स्वभावानुसार परिणमन करते रहते हैं। न तो हमारे परिणमन में केवलज्ञान कुछ बाधा डाल सकता है और न केवलज्ञानके परिणमन में हमारा परिणमन कुछ बाधा डाल सकता है दोनोंका परिणमन स्वतंत्र है इस बातको आप भी स्वीकार करते हैं कि किसी पदार्थका परिणमन किसी दूसरे पदार्थ के आधीन नहीं है फिर हमारा परिणमन केवलज्ञानमें झलका इसलिये हमारा परिणमन क्रमबद्ध होगया यह वात कैसी ? हमारा परिणमन क्रमबद्ध हुआ या अक्रमवद्ध हुआ जैसा हुआ वैसा केवलज्ञानमें झलका हां इतनी बात जरूर है कि केवलज्ञानकी इतनी स्वच्छता जवरदस्त हैं कि हमारा भविष्यकाल में क्रमबद्ध या श्रक्रमबद्ध जैसा परिणमन होन वाला है वैसा परिणमन उनके वर्तमानकाल में झलक जाता है इस अपेक्षाको लेकर ऐसा कह दिया जाता है कि
" जो जो देखी वीतरागने सो सो होसी वीरा रे । अहोगी कबहु न होसी काहे होत अधीरा रे ||
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