Book Title: Jain Tattva Mimansa ki Samiksha
Author(s): Chandmal Chudiwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 369
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ३६१ ऐसा नहीं होने देना चाहते हैं। इसलिये वे केवलज्ञानको सामथेके ऊपर ही उक्त प्रकारकी शंकायें करने लगे हैं । किन्तु वे ऐसे प्रश्न करते हुये यह भूल जाते हैं कि जैनधर्म में तत्त्व प्ररूपणाका मुख्य आधार ही केवलज्ञान है। जैन धर्म में तत्त्व प्ररूपणा ही क्या समस्त श्रलोकाकाश सहित तीनों लोकोंका और उनमें स्थित समस्त पदार्थों का और उनकी समस्त त्रिकालवर्ती पर्याय केवलज्ञानमें प्रतिभासित होती हैं इसलिये उन सबकी प्ररूपणा उस केवलज्ञान द्वारा ही होती है इस बातका बोध क्रमबद्ध पर्याय मानने वालों के ही ज्ञानमें हुआ हो और क्रमबद्ध पर्याय नहीं माननेवालों के ज्ञानमें इसका बोध न हुआ हो सो वात नहीं है । क्रमबद्ध पर्यायको माननेवालों को नियतिवाद पाखंड घोषित करने वाले नेमचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्त जैसे दिग्गज आचार्यों के ज्ञानमें भी केवलज्ञानमें उपरोक्त सर्व विषय झलकते हैं । ऐसा बोध नहीं हुआ हो सो वात नहीं है क्रमवद्ध पर्यायकी प्ररूपणा केवलज्ञानियोंकी नहीं है यदि क्रमद्ध पर्यायकी प्ररूपणा केवलज्ञानियों की होती तो उसका उल्लेख शास्त्रों में पाया जाता, क्योंकि सर्व शास्त्रों की रचना आचार्यों ने केवलज्ञान द्वारा निर्णीत विषयोंके आधार पर की है। इस लिये मानना पडेगा कि क्रमवद्ध पर्याय नियतिवाद पाखंड है । जो पूर्वाचार्यों ने घोषित किया है । यह छद्मस्थों की सूज है दि० जैन धर्म में एक यह काल दोषसे नया पाखंड खडा हुआ है केवलज्ञान के विषय में किसी विद्वानको कुछ भी शंका नहीं है । सब विद्वान जानते हैं कि- " त्रैलोक्यं सकलं त्रिकाल विषयं सालोक मालोकितं । साचाद्येन यथा स्वयंकरतले रेखात्रयं सांगुलिं " For Private And Personal Use Only -

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