Book Title: Jain Tattva Mimansa ki Samiksha
Author(s): Chandmal Chudiwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 334
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जैन ३२६ यथार्थबोध हो जाता है इस कारण आचार्यनि व्यवहार दृष्टिका साथ में रखकर वस्तु स्वरूपका प्रतिपादन किया है किन्तु पं० फूलचन्द जी ने व्यवहार दृष्टि को सर्वथा छोडकर कंबल निश्चय अपेक्षा से विवेचन किया है इस कारण उनका वह कथन एकान्त यादसे दूषित है। अनादि काल से जीवका पुद्गल के साथ एक क्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध हो रहा है इस कारण दोनों की संमिलित अवस्थाका ज्ञानीक नहीं होता अतः उनको उसका भेद विज्ञान करानेके लिये आचार्यों ने दोनों पक्ष समान रखकर वस्तु स्वरूपका 'मार्थबोध कराया है । आचार्य कहते हैं कि आत्माको कर्ता अकर्ता दोऊ रूप कहा है जो इस नय विभागको जानता है सो ही ज्ञानी है । "कत्ता आदा भवदो ग ग कत्ता केश सोउवाए । धम्मादी परिणामे जो जादि सो हवदि गाणी ॥७॥ टीका - कर्त्तात्मा भणितः सो न च कर्ता भवति स आत्मा केनाप्युपायेन नय विभागेन । केन नय विभागेनेति चेत निश्चयनयेन अकर्त्ता व्यवहारेण कर्तेतिकान् पुण्यपापादि कर्म जनितोपाधि परिणामान जो जादि सो हवदिगाणी ख्याति पूजा लाभादि समस्त रागादि विकल्पोपाधि रहित समाधौ स्थित्वा यो जानाति स ज्ञानी भवति इति निश्चय नय व्यवहाराभ्याम् कर्तृत्व कथन रूपेण तत्र मीमासां की Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गाथांगाता ।। अर्थात् आत्माको कर्त्ता और अकर्त्ता दोनों कहा है जो इस नय विभागको जानता है सो ही ज्ञानी है। भावार्थ - आत्मा पुण्य For Private And Personal Use Only

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