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३४४ जैन तत्त्व मीमांसा की
"आनन्द आंसू बदन धोय तुम सो चित साने । गद गद सुरसों सुयश मंत्र पढि पूजा ठाने । ताके बहु विधि व्याधि व्याल चिरकाल निवासी भाजै थानक छोड देह वांवई के वासी । ३ दिवते आवनहार भये भविभाग उदय वल । पहले ही सुर आय कनक मय कीय मही तल : मन गृह ध्यान दवार आय निवसी जग नामी । जो सुवरन तन करो कौन यह अचरज स्वामी । ४ प्रभु सय जगके विना हेतु वांधव उपकारी | निरावरण सर्वज्ञ । शक्ति जिनराज तिहारी । भक्ति रचित मम चित्त सेज नित वास करोगे । मेरे दुःख सन्ताप देख किम धीर धरोगे । ५ भव वनमें चिर काल भ्रम्यो कछु कहिय न जाई । तुम धुति कथा पियूष वापिका भागन पाई । शशि तुषार धनसार हार शीतल नहिं जा सम । करत न्होंन ता माहि क्यों न भव ताप वुझे मम। ६ ___ इत्यादिक शब्दों में वादिराजसूरिने स्तुती की जिससे कुष्ट रोग दूर हुआ इसी प्रकार मानतुङ्ग श्राचार्य ने आदिनाथ भगवानकी स्तुती की थी जिससे उनके बन्धन सब खुल गये जिसको कथा,सब जानते ही है जिनेन्द्र की भक्ति से क्या २ नहीं होता ? सब कुछ होता है। भक्ति मार्ग मोक्ष मार्ग में प्रधान अंग है । इसलिये प्राचार्य कहते हैं कि"एकापि समर्थेयं जिनभक्ति दुर्गति निवारयितु । पुण्याणि च पूरयितु दातु मुक्तिश्रियं कृतिनः "
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