Book Title: Jain Tattva Mimansa ki Samiksha
Author(s): Chandmal Chudiwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 366
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MANN ३५८ जैन तत्त्व मीमामां की कर कैसा ? जव निमित्तों के अनुसार पदार्थों का परिणमन होता है तव क्रमवद्ध पर्याय कैसी ? और विना तपके कर्म की निर्जरः और संवर नहीं होता फिर व्यवहार धर्म उपादेय नही ऐमा क्यों ? यद्यपि व्यवहारधर्म साधनेमें सरागता है तथापि वह सरागतः संसारका कारण न होनेसे उपादेव ही है क्योंकि दूर किया है अज्ञान अन्धोर जाने ऐसा जीव ताके तप संयम शास्त्रादिव सम्बन्धी राग भी है वह कल्याणके अर्थ ही है जैसे सूर्य के प्रभात संध्या सम्बन्धी आरक्तता है वह उदयके अर्थ है । " विधूततमसोरागस्तपःश्रुतनिवन्धनः । संध्याराग इवार्कस्य जंतोरभ्युदयाय सः ॥ १२३ ॥ --आत्मानुशासन ___ अर्थात् जैस सूर्यके जैसी अस्त समय संध्या विषे लाली हो हे तैसी ही प्रभात समय संध्या समय लाली हो है परन्तु प्रभात की लाली में अर संध्याकी लाली में वडा अंतर है जो प्रभातसमय विषे रात्री सम्बन्धी अन्धकार का नाश करि संधी विषे जो लाली भई सो आगामी सूर्यका शुद्ध उदय को कारण है । तैसे जीव के जैसा विषय आदिक विषे राग हो है तैसा राग तप शास्त्रादिक विषे भी हो है । परन्तु जो विषयादिक सेवनमें राग हो है वह मिथ्यात्वका कारण है. संध्या समय की लाली समान है आगामी अज्ञान अन्धकारके द्योतक है और जो तप शास्त्रादिक विषे राग भाव है सो मिथ्यात्व सम्बन्धी अज्ञानता को नाशकरि आगामी जीवका शुद्ध केवलज्ञानके उदयको कारण है इसलिये पूजा दान तप आदिमें जो सराग भाव है वह हेय नहीं है उपादेय ही है । इसको संसारका कारण समझ कर इसके लोप करनेकी चेष्टा करना प्रयत्न करना और भोगोंमें तल्लीन For Private And Personal Use Only

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