Book Title: Jain Tattva Mimansa ki Samiksha
Author(s): Chandmal Chudiwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

View full book text
Previous | Next

Page 353
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ३४५ "जिने भक्ति जिने भक्ति जिने भक्तिः सदाऽस्तुमे सम्यक्त्वमेन संसारवारणं मोक्ष कारण" इत्यादि__जय जिनेन्द्रदेवकी भक्तिसे सम्पूर्ण दुःखों का नाश होकर परंपरा अविनाशी मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है तब इस भक्तिमार्ग (व्यवहार धर्म) का लोप करना मोक्ष मार्ग का ही लोप करना है । त: सोनगढ के अनुयाई सज्जन इस भक्ति मार्ग को ईश्वर कर्ता वाद का रूप देकर अन्य मतावलम्बियोंकीतरह दि० जैनमत की मान्यता का सादृश्यपना दिखलाकर भोले जीवोंको इस भक्ति मार्ग से वंचित रखते है यह महान अनर्थकारी प्रचार है । वाह्य प्रवृति और शब्दोंका प्रयोग तो प्रायः करके सव मतावलम्बियों के सादृश्य ही दिखाई पड़ते हैं परन्तु अन्तरंग मान्यता में वडा भारा, अंतर है जिसको भोले जीव समझते नहीं उनको तो जैसा समझा दिया जाता है वैसा समझ लेता है । परन्तु समझाने बाला यदि जान बूझकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये उल्टा समझाकर मोक्ष मार्ग से विमुख कर देता है तो इससे बडकर और अन्याय क्या होगा ? अन्याय करनेमे भी अन्याय प्रवृत्ति करने वाले को पोठ ठोंकना उनकी हां में हां मिलाना उसका साथ देना उसको अच्छा कहना इसके समान कोई दूसरा पाप नहीं है उदाहरण स्वरूप वसुराजा को ही ले लीजीये वह झूठ बोलने से ही नर्क गया सो वात नहीं है किन्तु परवतकी हिंसा प्रवृत्ति का समर्थन किया इसलिये वह सिंहासन सहित जमीनमें धंस गया और मरण करके नर्क धरामें जा पहुंचा । अतः शास्त्रीजी आप सोनगढके आगम विरुद्ध सिद्धांतका समर्थन कर रहै हैं इससे अधिक दूसरा कोई भी पाप नहीं है मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति व्यवहार धर्मका लोप करना यही सबसे तीव्र मिथ्यात्व है इसका फल अवश्य भोगना पडेगा । For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376