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जैन तत्त्वमीमांसा को
होता शुद्ध जीवके या परमाणुओंका परिणमन भी कालद्रव्य के निमित्तसे ही होता है । यदि ऐसा न माना जायगा तो “धर्मास्तिकायाभावान्, यह सूत्र मिथ्या सिद्ध होगा क्योंकि मुक्तजीवका ऊर्ध्वगमन स्वभाव है इसलिये धर्मास्तिकाय के अभाव में भी मुक्तजोवोका गमन स्वतंत्ररूपसे आकाश में होते रहना चाहिये मो होता नहीं जहां धर्मास्तिकाय का सभाव है वहीं तक मुक्त जीवोंका गमन है आगे नहीं। इससे कोई अज्ञ यह मान बैठे कि मुक्तजीवोंमें इसके आगे जानेकी योग्यता नहीं है इसलिये वे लोकशिखर के आगे नहीं जाते किन्तु यह बात नहीं है मुक्तजीबों में उसके आगे जाने की योग्यता मौजूद है क्यों कि वे अनन्तशक्ति धारक हैं इस कारण वे अनन्तानन्त कालतक लोकशिखर पर विराजमान रहते हैं इससे मस नहीं होते इसलिये अनन्तशक्तिके धारक होनेसे उनमें आगे जाने की योग्यता विद्य मान है परन्तु आगे जानेके लिये निमित्त कारण धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे वे आगे गमन नहीं कर सकते ।
जिस प्रकार विना पटरीके इंजिन नहीं चल सकता जहां तक पटरी रहती है वहां तक ही वह चल सकता है आगे नहीं ! इससे यह नहीं कहा जा सकता कि उसमें उससे आगे जाने की योग्यता नहीं है। उसमें उससे आगे जाने की योग्यता (शक्ति) मौजूद हैं पर पटरी का आगे अभाव है इस कारण बिना पटरी के चलने की उसमें शक्ति नहीं है यदि पटरी उसके आगे और लगा दी जावे तो वह उसके आगे भी चल सकता है। चलने की शक्ति उसमें मौजूद है पर बिना पटरी के चलनेकी शक्ति उसमें नहीं है उसमें इतनी ही योग्यता है कि वह पटरीके सहारे चल सके इसी प्रकार मुक्त जीवमें लोकाकाश के आगे ऊद्ध गमन करनेकी योग्यता रहने पर भी धर्म द्रव्यके सद्भाव विना लोकाकाशके
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