Book Title: Jain Tattva Mimansa ki Samiksha
Author(s): Chandmal Chudiwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

View full book text
Previous | Next

Page 360
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५२ जैन तत्त्वमीमांसा की इस लिये भेद का नाम ही व्यवहार है फिर व्यवहार है। सो मूलवस्तुका स्पर्श ही नहीं करता ऐसा करना क्या यह न्याय संगत है ? कभी नहीं व्यवहार नय ही उपचरित हैं और वह वस्तु के पर्यायोंका कथन करने वाला है इसलिये वस्तुको स्पर्श नहीं करता ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या हैं क्योंकि पर्यायें वस्तुसे भिन्न दूसरा कोई पदार्थ नही है अतः पर्यायोंका प्रतिपादन करने वाला व्यवहार नय मूल वस्तु स्वरूपका अच्छी सरह बोध करा देता है इस बात को हम ऊपर में अच्छी तरह सिद्ध कर आये हैं इस लिये यहां पर दुबारा बताने की आवश्यक्ता नही है । पर्यायार्थिक नय को ही व्यवहार नय कहते हैं । इस वातका प्रमाण यह है- "पर्यायार्थिकनयइति यदि वा व्यवहार एव नामेति एकार्थोस्मादिह सर्वोप्यु, चारमात्रः स्यात् ५२१ पंचाध्यायी अर्थात् पर्यायार्थिक न कहो अथवा व्यवहार नम कहा दोनों का एक ही अर्थ है सभी उपचार मात्र है । व्यवहार नयके भेद - “व्यवहारनयो द्वेधा सद्भूतस्त्वथभवेद् सद्भूत । सद्भूतस्तद्गुण इति व्यवहारस्तत्प्रवृतिमात्रत्वात् ५ अर्थात व्यवहार नयके दो भेद हैं । सद्भूत व्यवहार नय असद्भूत व्यवहार नय | सद्भूत उस वस्तुके गुणोंका नाम है व्यवहार उसकी प्रवृत्तिका नाम है। भावार्थ - किसी द्रव्यके गुण उसी द्रव्यमें विवक्षित करने का नाम ही सद्भूत व्यवहार नय! है । यह नय उसी वस्तुके गुणों का विवेचन करता है। इसलिये यथार्थ है । अतः सत्यार्थ को मिथ्या कहना इससे बढकर और क्या अन्याय हो सक्ता है ? कुछ भी नहीं । आपके चार मूलभूत For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376