Book Title: Jain Tattva Mimansa ki Samiksha
Author(s): Chandmal Chudiwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 359
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ३५१ आत हुई कि वहीं से शुद्धोपयोग की शुरुआत प्रारंभ हो जाती है किन्तु इसकी पूर्णता तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में जाकर होती है । इसलिये जबतक शुद्धोपयोगकी पूर्णता अर्थात् शुद्धोपयोगकी निश्चलदशा नहीं होती तबतक निश्चल शुद्धोपयोगकी पूर्ण अवस्था प्राप्त करने के लिये प्रयत्न ( पुरुषार्थ ) करना पडता है उसीका नाम व्यवहार है यदि ऐसा न माना जायगा तो " तपसा निर्जरा च " यह तत्त्वार्थकारका वचन मिथ्या सिद्ध होगा । अर्थात् तपसे निर्जरा और संवर होता है और तप है सो अनशनादिके भेदसे बारह प्रकार के हैं वे सव व्यवहार हैं ध्यान हैं सो भी जहां तक सालम्बन है ध्यान ध्याताका विकल्प है तहां तक व्यवहार पर - कही है। इस व्यवहार पर ध्यान से और अनशनादि अन्य तपों के द्वारा पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा होकर आत्मामें इतनी विशुद्धि पवित्रता आजाती है कि जिससे जो कर्मोंके निमित्तसे परिणामों में चंचलता, सकम्यपना हो रहा था वह कारणके अभा व कार्यका अभाव होकर परिणामोंमें निश्चलध्यान करने की सामर्थ प्रगट हो जाती है इसलिये व्यवहार परमार्थका साधन भूत है आप जो व्यवहार को " उपचारित और बिडम्बना " रूप घोषित करते हैं और कहते हैं कि "जो व्यवहार कथन मूलवस्तुको स्पर्श करने वाले न होनेसे उपचारित हैं व्यवहार कथन मूलवस्तुका स्पर्शन ही नहीं करता है तो वह उपचरित कैसा ? और वह अभूतार्थ कैसा ? क्योंकि पर्यायाश्रित कथन को ही अभूतार्थ और उपचारित कथन कहते हैं इस बात को हम पहले सिद्ध कर आये हैं। भूतार्थ कहो या द्रव्यार्थिक कहो Wear निश्चयात्मक कहो ये सब एकार्थवाची शब्द हैं। और अभूतार्थ कहो या पर्यायार्थिक कहो अथवा व्यवहार कहो ये सव एका वाची शब्द हैं तथा उपचारित हैं वह व्यवहार नथका ही भेद हैं । और व्यवहार नय है वह गुण गुणी में भेद कल्पना करता For Private And Personal Use Only " जब

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