Book Title: Jain Tattva Mimansa ki Samiksha
Author(s): Chandmal Chudiwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 339
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममोक्षा ३३१ सति पुद्गलद्रव्यं कर्मत्वन स्वमेव परिणमते तथाहि यथासाधकः किल तथा विध ध्यानभावनात्मना परिणाममानोध्यानस्य कर्तास्यात् । तस्मिस्तु ध्यानभाव सकल साध्य भावानुकूलतया निमित्तमात्रीभृते सति साधक कर्तारमतरेणापि स्वयमेव बाध्यते विषव्याधयो विडंव्यते योपितोवस्यंत बंधास्तथायमज्ञानादात्मा मिथ्यादर्शनादि भावनात्मने परिणममाने मिथ्यादर्शनादि भावस्य कर्ता स्यात् तस्मिस्तु मिथ्यादर्शनादि भावै स्वानुकूलतया निमित मात्रीभृते सत्यात्मनं कर्तार मंतरेणापि पुद्गलद्रव्यं मोहनीयादिकर्म वेन स्वमेव परिणमते अज्ञानादेव कम प्रभवतीति तात्पर्यमाह ।। ___ अर्थ-आत्मा है सो जिस भाव को करे है ताका कर्ता श्राप होय है वहरि तिस कू' कर्ता होते पुद्गल द्रव्य है मो आपे श्राप कर्म रूप परिगामें हैं । जैसे साधक जो मंत्र साधन वाला पुरुष सो जिस प्रकार का ध्यान रूप भाव करि आप ही करि परिणमता संता तिस ध्यान का कर्ता होय है। वहुरि तिस साधक के जो समस्त साधन योग्य वस्तु तिसका अनुकूल, पणा करि तिस ध्यानकू निमित्त होते मंते तिस साधक के विना ही अन्य सादिक की विषकी व्याधि ते स्वमेव मिट जाय हैं। तथा स्त्री जन हैं ते विडंबना रूप होय जाय हैं बहुरि न्धन हैं : खुलि जाय हैं इत्यादिक कार्य मंत्रके ध्यानकी सामर्थते होय जाय है । तेसे ही यह आत्मा अज्ञानते मिथ्यादर्शनादि भावकरि परिणमता संता मिथ्यादर्शनादि भावका कर्ता For Private And Personal Use Only

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