________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३२४
-
जैन तत्त्व मीमांसा की ही बनानेकी नौवत न श्राती कि "धर्मास्तिकायाभावात् " इस सूत्र की रचना तो इसीलिये करनी पड़ी है कि मुक्त जीवों में ऊर्ध्वगमन करने की शक्ति तो विद्यमान है किन्तु उस शक्तिका कार्य लोकान्तके भागे धर्मास्तिकायका अभाव है इस कारण नहीं होता । इसीलिये सब ही आचार्योंने इस तथ्यको स्वीकार किया है कि लोकान्तके आगे धर्मास्तिकायका अभाव है इस कारण मुक्त जीव उसके सहारे विना आगे गमन नहीं कर सकता । यदि कुन्दकुन्द स्वामीको श्रापको मान्यता स्वीकार होतो तो उन्है भी नियमसार में निम्न प्रकारकी गाथा बनाने की जरूरत नहीं पडती । "जीवाण पुग्गलाणं च गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थी। धम्मस्थिका अभावे तत्तो परदो ण गच्छती" १८४
अर्थात् जहां तक धर्मास्तिकाय है तहां तक जीव और पुद्गल का गमन है । धर्मास्तिकायक अभाव में वे आगे गमन नहीं करते।
इस कथन से यह अच्छी तरह सिद्ध होजाता है कि गाथा १८३ में हेतु नहीं बतलाया था इस कारण इस गाथा में लोकान्त के आगे गमन नहीं करने के हेतू का निर्देश किया है । पूज्यपाद अकलंकदेव विद्यानन्दि ममन्तभद्र आदि सत्र ही श्राचार्योंने इसी तत्वको स्वीकार किया है । आपकी मान्यताका किसी भी आचाोंने समर्थन नहीं किया आप अपनी कल्पनासे गलत अर्थ खींचकर भव्यजनों में भ्रम पैदा करते हैं। उपादानकी योग्यताका कार्य निमित्तानुसार होता है निमित्त न हो तो उसका कार्य भी नहीं जैसा कि धर्मास्तिकायके अभाव में मुक्त जीव या पुद्गल परमाणु कोई भी लोकान्तके आगे गमन करने में समर्थ नहीं होते इसका कारण यही है कि जीव और पुद्गल धर्मास्तिकाय के सहारे ही
For Private And Personal Use Only