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समीक्षा
पापादि का व्यवहार नयसे कती है करने वाला है और निश्चय नयसे अकर्ता है नहीं करने वाला है जो इस प्रकार जानकर ख्याति पूजा लाभादि रहित होय आत्माका अनुभव करता है वह ज्ञानी है पुद्गल कर्मके निमित्त से आत्मा जिस प्रकार भाव करता है उसी प्रकार कर्मोके निमित्त उसके फलको भोगता है। . "पुग्गल कम्म निमित्तं जह आदा कुणदि अप्पणो भाव । पुग्गल कम्म निमित्त तह वेददि अपणो भावं" १६
-समयप्राभूत टीका--उदयागतं द्रव्य कम निमित्रं कृत्वा यथात्मा निर्विकार स्व संवित्ति परिणाम शून्यः सत्करोत्यात्म नः संबंधिनं सुख दुः खादिभाव परिणामं । तथैवोदयागत द्रव्यकर्म निमितं लब्ध्वा स्वशुद्धात्मभावनोत्थ वास्तवसुखास्वादमवेदयन्सन् तमेव कर्मोदयजनित स्वकीय रागादि भावं वेदयत्यनुभवति । न च द्रव्यकर्म रूप परभावमित्यभिप्रायः ... इस कथनसे निमित्तिकी सार्थकता भी भली भांति सिद्ध हो . बाती है । मिथ्यादर्शन अज्ञान अविरति इत्यादिक जो भाव हैं ते प्रत्येक न्यारे न्यारे मयूर मुकुरंद ( दर्पण ) की ज्यों जीव जीव करि भाये हुये है । तातें जीन भी है अजीव भी है। "मिच्छत्तं पुण दुविहं जीवमजीवं तहेव अण्णाणं । अविरदि जोगो मोहो कोधादिया इमे भावा" ।
१६ समयप्राभृत
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