Book Title: Jain Tattva Mimansa ki Samiksha
Author(s): Chandmal Chudiwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 335
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा पापादि का व्यवहार नयसे कती है करने वाला है और निश्चय नयसे अकर्ता है नहीं करने वाला है जो इस प्रकार जानकर ख्याति पूजा लाभादि रहित होय आत्माका अनुभव करता है वह ज्ञानी है पुद्गल कर्मके निमित्त से आत्मा जिस प्रकार भाव करता है उसी प्रकार कर्मोके निमित्त उसके फलको भोगता है। . "पुग्गल कम्म निमित्तं जह आदा कुणदि अप्पणो भाव । पुग्गल कम्म निमित्त तह वेददि अपणो भावं" १६ -समयप्राभूत टीका--उदयागतं द्रव्य कम निमित्रं कृत्वा यथात्मा निर्विकार स्व संवित्ति परिणाम शून्यः सत्करोत्यात्म नः संबंधिनं सुख दुः खादिभाव परिणामं । तथैवोदयागत द्रव्यकर्म निमितं लब्ध्वा स्वशुद्धात्मभावनोत्थ वास्तवसुखास्वादमवेदयन्सन् तमेव कर्मोदयजनित स्वकीय रागादि भावं वेदयत्यनुभवति । न च द्रव्यकर्म रूप परभावमित्यभिप्रायः ... इस कथनसे निमित्तिकी सार्थकता भी भली भांति सिद्ध हो . बाती है । मिथ्यादर्शन अज्ञान अविरति इत्यादिक जो भाव हैं ते प्रत्येक न्यारे न्यारे मयूर मुकुरंद ( दर्पण ) की ज्यों जीव जीव करि भाये हुये है । तातें जीन भी है अजीव भी है। "मिच्छत्तं पुण दुविहं जीवमजीवं तहेव अण्णाणं । अविरदि जोगो मोहो कोधादिया इमे भावा" । १६ समयप्राभृत For Private And Personal Use Only

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