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जैन तत्त्व मीमांसा को wwwmninowowowo .. देव लोकमें तीन शुभ लेश्यायें और नरक लोक में तीन अशुभ लेश्यायें ही होती हैं उसमें भी प्रत्येक देवलोककी और प्रत्येक नरक लोक की लेश्यायें नियत हैं । वहां उनके निमित्त कारण द्रव्य क्षेत्रादि भी नियत है। इतना अवश्य है कि भवनत्रिकोंके कपोत अशुभ लेश्या अपर्याप्त अवस्थामें संभव है। पर वह कैसे भवनत्रिकोंक होती है यह भी नियत है । इसी प्रकार भोगभूमि के मनुष्यों और तियचोंमें भी लेश्याका नियम है। कर्मभमि क्षेत्रमें और एकेन्द्रियादि जीवोंमें लेश्या परिवर्तन होता है अवश्य पर वह नियत क्रमसे ही होता है। गुणस्थानों में भी परिणामोंका उतार चढाव होता है वह भी शास्त्रोक्त नियतक्रमसे ही होता है । अधःकरण आदि परिणामोंका क्रमभी नियत है। तथा उनमें से किस परिणामके सद्भावमें क्या कार्य होता है वह भी नियत है एक नारकी जो नरकमें प्रथमोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है उसके और एकदेव जो देवलोकमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करता है उसके जो अधःकरण आदि रूप परिखामों की जाति होती है वह एकसी होती है उसके सद्भावमें जो कार्य होते हैं वे भी प्रायः एकसे होते हैं । अन्य द्रव्यक्षेत्रादि वाह्य निमित्त उनमें हेर फेर नहीं कर सकते यद्यपि एक समयवति और भिन्न समयवर्ती जीवोंके अधःकरण परिणामोंमें भेद देखा जाता है पर वह भेद नरक लोकमें संभव हो और देवलोक में संभव हो न हो ऐसा नहीं है । अतः इससे उपादानकी विशेष
ता ही फलित होती है।" __पंडितजी के उपरोक्त कथनका सार इतना ही है कि जब ये उपरोक्त सव व्यवस्थायें नियतरूप से सुसिद्ध हैं तो द्रव्यकी पर्याये भी निश्चित रूपसे सिद्ध क्यों नहीं हैं ? अवश्य ही निश्चित है अब इसपर विचार करना है कि उनके उपरोक्त वक्तव्यसे क्रम
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