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जैन तत्त्वमीमांसा की
उनके गुण भी नित्य हैं क्योंकि गुण गुणी अभेद हैं परन्तु उनकी पर्यायें अनित्य हैं वह सदा सास्वती रहनेवाली नहीं हैं। इसलिये नित्य पदार्थ के साथ अनित्य पदार्थकी समान तुलना करनी सर्वथा अनुचित है। अर्थात् जब द्रव्य और द्रव्यके गुण नित्य हैं और नियत हैं तो उनकी पर्यायें भी नित्य और नियत होनी ही चाहिये यह नियमकी बात नहीं हैं। क्योंकि गुण सहभावी हैं और पर्यायें क्रमभावी हैं इसलिये जो क्रमभावी वस्तु है वह अनित्य ही होती है क्योंकि उसकी उत्पत्ति नवीन नवीन क्रमरूप से होती है जिसकी नवीन उत्पत्ति होती है उसका विनाश भी अवश्य होता है। अतः उत्पाद व्यय में नित्यता और नियमितता नहीं रहती । इसलिये द्रव्य और गुणों के साथ पर्यायों की नियतता सिद्ध करना सर्वथा युक्ति और आगम विरुद्ध है ।
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इसका कारण यह कि गुण धर्म पदार्थमे नवीन पैदा नहीं होते और न उसका कभी विनाश होता है इसलिये वे जेता हैं तेता ही वे पदार्थ के साथ सदा विद्यमान नियंतरूपसे रहते हैं अतः उनकी संख्या नियमित बनी हुई है किन्तु पदार्थ में पर्यायें गुणों की तरह सदा विद्यमान नहीं रहतीं। वह एक विनशती है उसी समय दूसरी उत्पन्न हो जाती है जैसे मिट्टी रूप पदार्थकी घटरूप पर्याय का नाश होते ही उसी क्षण में कपालरूप पर्याय उसकी उत्पन्न हो जाती है । उसीप्रकार मनुष्य पर्यायका नाश होते ही देवादि पर्या
की उत्पत्ति हो जाती है इसलिये पर्यायें पदार्थ के साथ सहभावी नहीं हैं इसलिये उनकी संख्या नियमितरूपसे नियत नहीं रहती इसीकारण उसका ( द्रव्यका ) उत्पाद व्यय स्वभावका कभी अभाव नहीं होता और इससे पदार्थकी भी हानि वृद्धि कुछ भी नहीं होती क्योंकि वह पदार्थका स्वभाव है स्वभावमें कभी हानि वृद्धि होती नहीं । यदि पदार्थ में स्वभावकी हानि वृद्धि मान लीजाय
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