Book Title: Jain Tattva Mimansa ki Samiksha
Author(s): Chandmal Chudiwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 318
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१० जैन तत्त्व मीमांसा की व्यययुक्त होकर भी ध्रौव्यरूप है। इस कारण कशंचित् सत्का भी विनाश पर्याय अपेक्षा घटित होता है अर्थात् सत् जिस पर्याय स्वरूपमें अवस्थित है उस पर्यायका नाश होने से उस पर्याय रूप मतका भी विनाश देखा जाता है इस अपेक्षा कचित् सत्का भी विनाश कहा जा सकता है। तथा उसी सत्का पूर्व पर्यायके विनाश कालमें नवीन पर्याय का उत्पाद होजाता है और उसी सत का पूर्वपर्याय में भी जैसा धौव्यपणा अवस्थित था वैसा ही उस का उत्तर पर्याय में भी ध्रौव्यपणा मौजूद है । इस अपेक्षा सतका ही कथंचित् ध्रौव्यपणा और उत्पादपणा घटित होता है। तथा उत्पाद व्यय कथंचित असत इमलिये नही है कि उसका उत्पाद व्यय सत् पदार्थ में ही होता है, जो सत की सत्ता है वही सत् के उत्पाद व्यय की सत्ता है उत्पाद ब्यय की कोई अलग दूसरी सत्ता नहीं है इस कारण कथंचित उत्पाद ब्यय का सत्के माथ तादात्मक सम्बन्ध भी कहा जा सकता है। इसी कारण सत का कार्य (.पर्याय ) भी असत् नहीं है । अतः यह सव कथन नय विवक्षासे किया गया है यदि सत को सर्वथा ही उत्पाद व्यय से भिन्न मान लिया जाय तो सत्का कोई कार्य ही नहीं रहता वह श्राकाशके कुसुमवत् असत् सिद्ध हो जाता इस लिये सत पदार्थसे उसकी उत्पाद ब्यय रूप पर्यायें भी कथंचित् अनन्न होनेसे सत् रूप समझी जाती है वह सर्वथा असत् नही कहीं जासकती है । आप्तमीमांसामें समन्तभद्राचार्यने यही बात कही है, इसी परसे आप पर्याय स्वरूप कार्यको सर्वथा सत् मानकर क्रमवद्ध पर्याय की सिद्धि करते हैं सो इस से क्रमवद्ध पर्याय सिद्ध नहीं होती क्योंकि पर्याय यदि सर्वथा सत् रूप होती तो उसका सत् की तरह सदा ध्रौव्यपणा वण्या रहना चाहिये सो ऐसा देखने में नहीं आता और आगम प्रमाण ही ऐसा नहीं मिलता इस कारण पर्याय कथंचित असत For Private And Personal Use Only

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