Book Title: Jain Tattva Mimansa ki Samiksha
Author(s): Chandmal Chudiwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 327
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममीक्षा टीका-भव्या भवितु योग्या भाविनी वा सिद्धिः अनंतचतुष्टयरूपस्वस्वरूपोपलब्धिर्येषां तं भव्यसिद्धाः। अनेन सिद्धलब्धियोग्यताभ्यां भव्यानां द्वविध्यमुक्तं । तद्विपरीता' उक्तलक्षणद्वयरहिताः ते अभव्या भवंति अतएव ते अभव्या न सिद्धति संसारान्निःसत्य सिद्धि न लभते" गोम्मटसारे ५५७ एवं द्विविधानामपि भव्यानां सिद्धि लाभप्रसक्ती तद्योग्यतामात्र वतामुपपत्तिपूर्वकं तां परिहरति" ___ अर्थात् भव्या कहिये होने योग्य बा होनहार है सिद्धि कहिये अनन्त चतुष्टय रूप स्वरूपकी प्राप्ति जिनके ते भव्यसिद्ध जानने यः कार सिद्धिकी प्राप्ति अर योग्यताकार भव्यनिके द्विविधपना कहया है। भावार्थ-भव्य दोय प्रकारक हैं केई तो भव्य ऐसे हैं जे मुक्ति होने का कंवल योग्य ही है परि कवहूं सामग्रीको पाय मुक्त न होई बहुरि कई भव्य ऐसे हैं जे कालपाय मुक्त होहिगे। बहुरि तद्विपरीताः कहिये पूर्वोक्त दोऊ लक्षण रहित जे जीव मुक्त होने योग्य भी नाहिं अर मुक्त भी होते नाहि ते अभव्य जानने । तातें ते वे भव्यजीव संसार निकास कदाचित् मुक्तिको प्राप्त न होंगे ऐसाही कोई द्रव्यत्व भाव है। यहां कोऊ भ्रम करेगा जो अभव्य मुक्त न होय तो दोऊ प्रकार के भव्यनिक तो मुक्त होना ठहग्या तो जे मुक्त होनेके योग्य कहे थे तिन भव्यनिके भी कवहूं तो मुक्त प्राप्ति होसी सो एसे भ्रमको दूर करने के लिये आचार्य करते हैं"भव्बत्तणस्स जोग्गा जे जीवा ते हवंति भव्य सिद्धा। गहु मलविगमे णियमा ताणं कणओवलास मिय" ५५८ टीका-ये भव्यजीवाः भव्यत्वस्य सम्यग्दर्शनादिसामग्री For Private And Personal Use Only

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