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न तत्व मीमांसा की
ज्ञान है जैसे-ग्रह वही हैं इस प्रकारका ज्ञान एक वस्तुकी सामान्य विशेष दोनो अवस्थाओंको एक समयमें ग्रहण करता है । प्रमाण का फलःफलमस्यानुभवः स्यात्समक्षमिव सर्ववस्तुजातस्य । ' आख्याप्रमाणमिति किल भेदः प्रत्यक्षमथ परोक्षं च ।।
अर्थ-सम्पूर्ण वस्तु मात्रका प्रत्यक्षके समान अनुभव होना ही प्रमाणका फल है । प्रमाण नाम प्रमाण है इसमें अप्रमाणकी कोई बात नहीं रहती क्योंकि सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम' सम्यज्ञान है वही प्रमाण है उसीके द्वारा पदार्थ प्रत्यक्षके समान भासता है फिर उसमें अप्रमाणता की बात ही क्या है ! अतः प्रमाण वस्तु के सर्वधर्माको विषय करता है और नय वस्तुके एक देशको ग्रहण करता है। इसलिये प्रमाण और नयम विषय विशेषकी अपेक्षा से भेद है तथापि दोनों ही ज्ञान ज्ञानात्मक होनेसे इनमें कुछभी भेद नहीं है इसलिये इनमेंसे किसी एकका लोप करनेसे सर्व के लोपके प्रसंगका हेतु है। क्योंकि नयके अभावमें प्रमाण व्यवस्था नहीं बन सकती
और प्रमाण के अभावमें नयकी भी व्यवस्था नहीं बन सकती दोनोंकी व्यवस्था के विना वस्तुरूप का भी वोध हो नहीं सकता इसलिये इनमें से किसी एकको अपरमार्थाभूत समझ कर उसका लोप करना वस्तु स्वरूपका ही लोप करना है । यह बात उपरोक्त कथनसे अच्छी तरह सिद्ध हो चुकी । इसलिये प्रमाण नय निक्षेप इनमें से किसीका भी कथन वस्तु स्वरूपको छोडकर नहीं है ये सत्र ही वस्तु स्वरूएकी ही सिद्धि करते हैं। जिम प्रकार वस्तु स्वरूपसे वस्तुके गुण धर्म अभिन्न है उसी प्रकार प्रमाणसे नय निक्षेप भी अभिन्न है प्रमाण स्वाधीन है दीपवत् स्व पर प्रकाशक है। तथा नाम स्थापना द्रव्य ये तीन निक्षेप तौ द्रव्यार्थिक नयाश्रीन है । नय प्रमाणाधीन है और निक्षेप नयाधीन है।
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