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जैन तत्त्व मीमांसा की
तब बन्ध और मोक्ष अवस्था भी वास्तविक है इसमें मंदेह कैसा क्योंकि जीवकी संसार अवस्था विना बन्धके नहीं और जीवको मुक्त अवस्था बन्धके अभाव विना नही यह बात सुनिश्चित है। इसको आप कानजीके मताधारसे निम्न प्रकारके बाक्योंसे मिथ्या सिद्ध करनाचाहते है सो हो नहीं सकता क्योंकि यह श्रागमप्रमाण से प्रमाणित है । आप चाहें जितनी सफाई के साथ वाक्यपटुता
ओसे अर्थका अनर्थ कर भोले जीवोंको भुलावे में पटक वस्तुस्वरूप तो जैसा आगममें प्रतिपादन किया है वैसा ही रहेगा । जो जीवको संसार और मुक्त अवस्था है उसको तो आप अस्वीकार कर नहीं सकते क्योंकि जीवको संमार अवस्था तो प्रगट दृष्टिगोचर है और संमार का अभाव मो मुक्त अवस्था है उसको भी मानना पडेगा इसलिय इसको तो आपने भी वास्तविक स्वीकार की परन्तु यह वास्तविक किस कारणस है इसको कर्म निरपेक्ष सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। पति
"इस आधारसे कर्म और आत्माके संश्लेष सम्बन्धको वास्तविक मानना उचित नहीं है । जीवका संसार उसकी पर्यायमें ही है।" ठीक है जीवकी संसार अवस्था और मुक्तश्रवस्था उसोकी पर्याय में ही है दूसरे की पर्याय में नहीं इस बातको कोई भी विद्वान अस्वीकार नहीं कर सकता किन्तु उम पर्यायका कारण क्या है ? कर्मके निमिनसे तो आप मानते नहीं फिर किस कारणसे संसार अवस्था और मुक्त अवस्था है । यदि स्वत: है तो मुक्त जीव फिर संसारी क्यों नहीं बनता क्या उनमें परिणमन शक्तिका अभाव हो चुका है ! यदि नहीं तो स्वाधीन परिणमनका यह कार्य नहीं है ऐसा मानना पडेगा । क्योंकि स्वाधीन परिणमन शुद्धद्रव्यका ही होता है। उसमें भी यथासम्भव धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य आकाशद्रव्य और कालद्रव्य उदासीनरूप से निमित्त कारण होते
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