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समीक्षा
२४१
___पंडितजी ! भट्टाकलंकदवक कथनको श्राप ही नहीं समझे या समझ करके भी सोनगढकी पक्षमें आपको समर्थन करना है इसलिये स्पष्ट अर्थको रखेंचातानी कर विपरीत अर्थ किया है सो विद्वानोंकी गोष्ठीमें हास्योत्पादक है। क्योंकि शंका एक जीव की अपेक्षा की जाय और उत्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा दिया जाय यह बात भट्टाकलंक देव जैसे तार्किक विद्वानोंका काम नहीं है।
प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । धनंजयकवेः काव्यं रत्नत्रयमकंटकम् ।
अतः भट्टाकलंकदेव द्वारा ऐसा नहीं होमकता है । उन्होंने जिसरूपमें शंका उठाई है उत्तर भी उन्होंने उसी रूप में दीया है। शंकाके शब्द इस रूप हैं-भव्यस्य कालेन निःश्रेयसोपपत्तेः इसका उत्तर निम्न प्रकार शब्दो में दिया है
ततश्च न युक्त भव्यस्य कालेन निःश्रेयसोपपत्त: अतः प्रश्न भी एक जीवकी अपेक्षा है और उत्तर भी एक जीवकी अपेक्षा है। उनका कहना है कि भव्य जीवों केलिये मोक्ष जाने में कोई कालका नियम नहीं है । जब जिस भव्यजीवको मोक्ष जानका सुवाग प्राप्त हो जाता है तव तिस भव्य जीवका मोक्ष की प्राप्ति होजाती है । अतः भव्य जीव कालकी अपेक्षा नहीं करते कि हमको जिसकालमें मोक्ष होनी है उसी कालमें ही हमको मोक्ष की प्राप्ति होगी, पहिले नही होगी ऐसा विचार करके निरुद्यमी नहीं होते, मोक्ष जाने केलिये प्रयत्न करते ही हैं।
पं० फूलचंदजीने जितने उद्धरण दिये हैं सव अधूरे दिये हैं। जैसे भट्टाकलंक दवका अभिप्राय सम्पूर्ण रीतिसे उनके पार
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