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जैन तत्त्व मीमांसा की
सत्यभी मानलें तो भी इस कथनसे नियत समयमें होने वाली पर्यायके अनुसार शुभाशुभ कर्मवन्धका परिणमन होजाता है गह सिद्ध नहीं होता। क्योंकि ऐमा नियम नहीं है कि वन्ध होने के वाद सबही कर्मोंका क्रमवद्ध पर्यायके अनुसार संक्रमण होता ही रहै । निमित्तानुसार किसी कर्मका उत्कर्षण किसीका अपकर्षण किसीका संक्रमण, किसीको उदीरणा, किसीका सत्तामें ही उदय
आये विना ही नष्ट हो जाना और किसीका जैसा वन्ध किया है पैसा ही उदय, आना इत्यादि कर्मों की निमित्तानुसार अनेक अवस्था होती हैं इसलिये क्रमबद्ध नियम पर्यायानुसार सर्वाकर्मों का संक्रमण होकर परिणमन होजाय यह बात बनती नही । निकांवित कर्मका कुछ भी हेरफेर नहीं होता जैसा बन्ध किया है वैसा ही उदयमें आता है । इसलिये पर्यायका कोई स्वकाल निश्चित नहीं है वह तो नवीन नवीन उपजती है और नष्ट होती है इस वातको ऊपरमें आगम प्रमाणसे सिद्ध कर आये है अतः जीवके साथ त्रिकाल सम्बन्या सर्वा पर्याय विद्यमान अवस्थित रहती हैं यह आपकी मान्यता सर्वाथा आगमविरुद्ध है। ___ आयुकर्मका वन्ध त्रिभागीमें होता है उसकी आठ विभागी होती है आठ त्रिभागीमें यदि आयुर्मका वन्ध न हुआ हो तो "अंतमता सो मता" अर्थात् अंत समयमें जैसा परिणाम होता है उसके अनुसार आयुका बन्ध हो जाता है । अतः यह वन्ध क्रमवद्ध पर्यायके अनुसार ही हो ऐसा नियम नहीं है और ऐसा नियम हो भी नहीं सकता है । इसका कारण यह है कि कर्मों का वन्ध तो समय समय प्रति अपने परिणामोंके अनुसार वन्धता रहता है और उनकी स्थिति और अनुभाग बन्ध भी परिणामोंके अनुसार ही होता है । स्था वर्तमान परिणाम भी वर्तमान शुभाशुभ निमित्तोंके अनुसार ही होते हैं। परन्तु ऐसा कोई कहीं पर
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